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________________ किरण -६] महाकवि स्वयंभु और त्रिभुवन स्पयंभु ३०३ ३--पंचमीचरिउ अंश स्वयंभदेवका है और शेप और त्रिभवनका । दर्भान्यये अभी तक इस ग्रंथकी कोई प्रत उपल्लव स होता है कि पिता यांद दोनोको अधूरा ही छोड़ता तो नहीं हुई है। परन्तु पउमरियमे लिया है कि यदि स्वयम इतने थोडे थोडे ही अंश क्यों छोड़ता वक पुत्र त्रिभुवन न होते तो उनक' पहाडयाबह पंचमी ५ त्रिभवन स्वयम अपने ग्रन्थ शोंको 'सेस' 'मयभ. चरितको कौन संवारता' इससे मालूम होता है कि स्वयंभु देव-उपरिम' और 'तिहअणसयंभममाणि' विशेषण देवका पंचमीचरित नामका ग्रंथ भी अवश्य था और उसे देते हैं। शेषका स्थं स्पष्ट है। प्राचार्य हेमचन्द्रकी नामभी उनके पुत्रने शायद पूर्वोक्त दो ग्रंथों के ही समान बारा मालाकं अनुसार 'उज्वार' का अर्थ 'अधिकं अनीप्सित' था--बढ़ाया था। होना है। अर्थात, स्वयभदेवको जो अंश अभीप्सित नहीं स्वयंभुके तीनों ग्रन्थ सम्पूर्ण थ था, या जो अधिक था, वह अंश । इसी तरह 'समाणि' शब्द का अर्थ होता है, लाया गया। इन तीनो विशेषणोमे जैसा कि पहले कहा जा चुका है, स्वयंभु देवने अपने यही ध्वनिन होता है कि यह अधिक या अनीप्सित श्रश तीनों ग्रन्थ अपनी समझ और रुचिके अनुसार सम्पूर्ण ऊपरसे लाया गया है। ही रचे थे, उन्हें अधूरा न छोड़ा था । पीछे उनके पुत्र त्रिभुवनने अधोको पूरी नहीं किया है बल्कि ६ रिट्टण मिचरिउको देखनेमे पता चलता है कि उनमें इजाफा किया है। इसकी पुष्टिमें हम नीचे लिपी वास्तवमे समवसरण के उपरान्त नेमिनाथका निर्वाण होते बातें कह सकते है ही यह ग्रन्थ समाप्त हो जाना चाहिए । इसके बाद कृष्णकी , यह बात कुछ जंचती नही कि कोई कवि एक साथ रानियोंके भवान्तर, गजकुमारनिर्वाण, दीपायन मुनि, द्वारातीन तीन ग्रन्थोंका लिखना शुरू कर दे और तीनोंको ही वती-दाह, बलभद्रका शोक, नारायगाका शोक, हलधरदीक्षा, अधूरा छोड जाय । अपना अन्तिम ग्रन्थ ही वह अधूग जर'कुमार राज्यलाभ, पाण्डव - गृहयास, मोहपरित्याग, छोड़ सकता है। पाण्डव-भवान्तर श्रादि प्रकरण जोहर से श्रागेकी पधियां २ पउमचरिउमें स्वयभुदेव अपनेको धनजयका श्राश्रित में है वे नेमिचरितके अावश्यक अंश नही हैं. अवान्तर हैं। बतलाते हैं और रिटणे मिउरिउमे धवल इयाका। इसमे इनके विना भी वह अपूर्ण नही है। परन्तु त्रिभवन स्व. स्पष्ट होता है कि इन दोनो ग्रन्थोंकी रचना एक साथ नही यभने इन विषयांकी भी आवश्यकता समझी और इस हुई है। धनजयके श्राश्रयमें रहते समय पहला ग्रन्थ समाप्त तरह उन्होंने रिट्टण मिचरिउको हरिवंशपुराण बना दिया किया गया और उसके बाद धवलइयाके श्राश्रयमे जो कि और शायद इसी कारण वह इस नामगे प्रसिद्ध हुआ। शायद धनंजयका पुत्र था रिट्टणे।मचरिउ लिखना शुरू ५ उमरियशी अन्तकी सात सन्धियांके विय भी-सीना, ह्या । पंचमीचरित शायद धनंजयके श्राश्रयमे ही लिग्ग बालि, और सीता-पुत्रोके भवान्तर, मारत-निर्वाण हरिमरण गया हो। आदि-इसी तरह अवान्तर जान पड़ते हैं। ३ दोनों प्रन्थोका शेष त्रिभुवन स्वयंभुने उस समय ४-स्वयंभु-छन्द लिखा जब वे बन्दइयाके आश्रित थे और इस बातका उल्लेख भी रिटणे मिचन्यिकी ११ वी सन्धिके अन्तमे कर स्वयंभदेवके इस छन्दोग्रथका पना अभी कुछ ही दिया कि पउमचरिउको (शेष भाग) कर चुकनेके बाद समय पहले लगा है। इसकी एक अपूर्ण प्रति जिसमे अब मैं हरिवंश-पुराणकी (शेष भागकी) रचनामे प्रवृत्त । प्राभके २२ पत्र नहीं हैं प्रो. एच. डी, वेलणकरको होता हूँ। यह उल्लेख स्वय स्वयंभुदेवका किया हुआ नही १ या प्रान बड़ौदाक श्रोस्यगटल इन्स्टट्य टकी है। हो सकता। प्राधिन मुदी ५, गुरुवार मयत १७२७ को इस गमनगर ४ पउमचरिउका लगभग अंश और हरिवंशका में किसी कगादेवने लगाया।
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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