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________________ ३०२ अनेकान्त [वर्ष हरिवंशकी ११ सन्धियों बना चुकनेपर स्वयंभव यह कैसे करना कठिन है। कह सकते हैं कि पउमचरिउ बनाकर अब मै हरिवंश बना- बहुत कुछ सोच विचारके बाद हम इस निर्णयपर ता हूं? अतएव उक्त पद्यसे यह स्पष्ट हो जाता है कि पहुचे हैं कि मुनि जमकित्तिको इस प्रकी कोई सी जीर्णस्वयंभवी रचना इस ग्रन्थमे ११ वी मन्धिके अन्त तक है। शीर्ण प्रति मिली थी जिसके मन्तिम पत्र नष्ट भ्रष्ट थे और इसके प्रागेका भाग, १०० से ११२ तककी सन्धियों, शायद अन्य प्रतियाँ दुर्लभ थी, इसलिए उन्होने गोपगिरि त्रिभुवनस्वयंभुकी बनाई हुई हैं और इसकी पुष्टि इस (ग्वालियर) के समीप कुमरनगरीके जैनमन्दिरमे व्याख्यान बातसे होती है कि अन्तिम सन्धि तककी पुष्पिकायाम करनेके लिए इसे ठीक किया, अथान जहाँ जहाँ जितना निभवन स्वयभका नाम दिया हुवा है। परन्तु इन तेरह जितना अंश पढ़ा नही गया, या नष्ट हो गया था, उसको सन्धियोंमसे १०६, १०८, १५० और ११७ वी सन्धिके स्वयं रचकर जोर दिया और जहाँ जहों जोड़ा वहीं वहाँ पोंमें मुनि जमकित्तिका भी नाम आता है और इससे एक अपने परिश्रमके एवज में अपना नाम भी जोड दिया। बही भारी उलझन वढी हो जाती है। इसमें नो सन्देह १०६ वी सन्धिके अन्तम वे लिखते हैं कि जिनके नही कि इस अन्तिम अंशमे नुनि जमकित्तिका' भी कुछ मनमे पर्वोके उहार करनेका ही राग था, (पर्वसमुद्वरणरागहाथ है. परन्तु वह कितना है इसका ठीक ठीक निर्णय कमनमा) एसे जमकित्ति जनिने कविराजके शेष भागका १ मनि नकित्ति या यश:कानि वाठासंघ-मायुगन्वय पाकर प्रकृत अर्थ कहा और फिर अपने इस कार्यका औचित्य गण के भट्टारक थं श्रोर गोपाचल या ग्वालियरकी गहार बतलाते हुए वे कहते हैं कि संसारमे वे ही जीते हैं, उन्हीका आसीन थे। उनके गुरुका नाम गुणकति या । उनके के जीवन सार्थक है, जो पराये बिहडित (बिगडे हुए या दो अपभ्रंश-अन्य भिलन हैं एक हरिवमप्राणु ओर मग विश्वल हुए) काव्य कुल और धनका उद्धार करते हैं। चंदष्पहचरिउ । पहला ग्रन्थ जनमिद्वान्तभवन आगम है। ही पिछली दो मन्धियोकी रचना और भाषापरसे ऐसा भास्कर (भाग ८, किरण १) में उसके जो बहुत ही मालूम होता है कि उनमें जमकित्तिका कुछ अधिक हाय अशुद्ध अंश उदघृत किये गये है उनसे मालूम होता है है। जस कित्ति इम ग्रन्थके कर्तासे ६-७ सौ वर्ष बानके कि दिवढा माह के लिये उसकी रचना की गई थी।--- लेखक हैं, उनकी भाषा इस ग्रन्थकी भाषाके मुकाबिलेमें "इय हग्विंसपगण कुरुवंमाहिटिए विवचित्तागुरंजण अवश्य पहिचानी जा सकती है और हमारा विश्वास है कि मिारगुणकित्तिमा मांगजमकित्तिविग्हाए माहु-दिवढाना- अपभ्रंश भाषाके विशेषज्ञ परिश्रम करके इस बातका पता मंकित नेरहमी मगा मम्मत्त।।" और पिछला ग्रन्थ लगा सकते हैं कि इस ग्रन्थकी पिछली सन्धियोम जमफवनगरके जैनन्दिरके भवाग्म है। नमक अन्नम कित्सिकी रचना कितनी है । हमे यह भी आशा है कि लिग्वा है-"इय मिरिचंदापहचाशा महाक जमवित्ति- हरिवंशकी शायद ऐसी प्रति भी मिल जाय जो स्वयंभ विरहए महामविमिद्धपालमवणभूमणे मारचंद गहमामि- और त्रिभुवन स्वयंभुकी ही सम्पूर्ण रचना हो और उसमें णिवाणगमगो गामाएयाग्इमो मधी मम्मत्ता ।" यह जमकित्तिके लगाये हुए पेबन्द न हो। प्रति श्रावण बी १, शनि, सवन १५६८ की रिवी हुई एक बात और भी ध्यान देने योग्य है कि जसवित्तिका है। जकिति तोमवंशी गना की िसिटके समयम खुदमा भी बनाया हुआ एक हरिवंशपुराण है और वह विक्रमकी सोलहवी शताब्दि के प्रारम्भम हुए है । नेन- अपभ्रशभाषाका ही है। इसलिए उनके लिए यह कार्य सिद्धान्त भवन श्रागम जानार्गवकी एक प्रति है जो अत्यन्त मुगम था और क्या प्राश्चर्य जो उन उन अंशोंके मंधत् १५२१ भाषाट सुदी ६ ममबारका गोपाचल दुर्गम स्थानपर जो त्रिभ वन स्वयंभु के हरिवंशपुराण मे नष्ट हो तोमरवंशी राजा कीतिमिहक राज्यम लिम्वी गई थी। गये थे अपने उक्त हरिवंशकेही अंश काट-छांटकर जड इसम गुणकीर्ति और यश:ति के बाद उनके शिव दिये हो। इसका निर्णय जसकित्तिका ग्रंथ सामने रखने मलय कीर्ति और प्रशय गुगा मद्र भट्टारकके भी नाम हैं। से हो सकता है।
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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