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________________ किरण ८-६] कमी महसूस हुई और उस कमीको उन्होंने अपनी तरफ कई नये नये सर्ग जोड़कर पूरा किया। महाकवि स्वयंभु और त्रिभुवन स्वयंभु जिस तरह महाकवि पुष्पदन्तके यशोधरचरितमे राजा और कीलका प्रसंग, यशोधरका विवाद और भवान्तका दर्शन नहीं था और इस कमीको महसूस करके बीलसह नामक धनीके कहने मे गन्धर्व कविने उक्त तीन प्रकरण अपनी तरफ़ से बनाकर यशोधरचरितमे जोड दिये थे । कविराज चक्रवर्तीने भी उक्त तीनों ग्रन्थोंकी पूर्ति लगभग उसी तरह की है । अन्तर सिर्फ इतना ही है कि गन्धर्वने उक्त प्रयत्न पुष्पदन्नामे लगभग साढ़े तीन सौ वर्ष बाद किया था, परन्तु त्रिभुवन स्वयंभु पिताके देहान्त बाद कल ही १- पउमचरिउ यह ग्रन्थ १२ हजार श्लोकप्रमाण है और इसमें सब मिलाकर ६० - विद्याधरकार में २०, अयोध्या काण्ड मे २२, सुन्दरकाण्ड में १४, युद्धका २१ र उत्तरकाण्ड में १३२ इनमे ८३ सन्धियों स्वयंभुदेवकी श्रौर शेष ७ त्रिभुवन स्वयंभुकी हैं। ८३ वीं सन्धिके अन्तकी पुष्पिकामें भी यद्यपि त्रिभुवन स्वयंभुका नाम है, इस लिए स्वयंभूदेवकी रची हुई ८२ ही सन्धियों होनी चाहिएँ परन्तु ग्रंथान्तमेत्रिभुवनने अपनी रामकथा-कन्याको सप्तमहामगंगी या सातसवाली कहा है, इसलिए ८४ से ६० तक सात सन्धियों ही उनकी बनाई जान पडती हैं। संभव है ८३ वी सन्धिका अपनी आगेकी ८ वी सन्धिसे ठीक सन्दर्भ बिठाने के लिए उसमे भी उन्हें कुछ कढवक जोडने पढे हों और इसलिए उपकी पुष्पिकामे भी अपना नाम दे दिया हो । २ रिमिचरिउ यह हरिवंसपुराण नामसे प्रसिद्ध है । श्रठारह हज़ार ओकमाया है और इसमें ११२ मन्धियाँ हैं। इसमें तीन काण्ड हैं-- यादव, कुरु और युद्ध । यादवमे १३. कुरुमे १६ १ देवो महाकवि पुष्पदन्त' शीर्षक लेख, पृ० ३३१-३१ । २ देखो पउमचरिउके श्रन्तके । ३-४ अपभ्रंश काव्य में मर्गकी जगह प्रायः 'सन्धि'का व्यवहार किया जाता है। प्रत्येक अनेक कड़क होते हैं ३०१ युद्ध में ६० सन्धियों हैं। सन्धियोंकी यह गणना युद्धकांड के अन्तमें दी हुई है और यह भी बतलाया है कि प्रत्येक काण्ड कब लिखा गया और उसकी रचना में कितना समय लगा"। इससे इन १२ सन्धियोंके कर्तृवके विषय में को कोई शंका ही नहीं हो सकती ये तो निक निश्चयपूर्वक स्वयंभुदेवकी बनाई हुई हैं। श्रागे ६३ से ६६ तककी सन्धियोंकी पुष्पिकाओं में भी स्वयभदे का नाम है और फिर उसके बाद १०० वीं सन्धि अन्त मे त्रिभुवन स्वयंभुका नाम है। इसका श्रर्थ यह हुआ कि ६३ से ६६ तककी सन्धियाँ भी स्वयंभुदेवकी हैं और इस तरह उनका रचा हुआ रिमिचरिय ६६ व सन्धिपर समाप्त होता है। इस सन्धिके अन्त में एक पथ है जिसमें कहा है कि पारित बनाकर अब मैं हरिवंशकी रचना में प्रवृत्त होता हूँ, सरस्वतीदेवी मुझे स्थिरता देवें। निय ही यह पत्रिभुवन स्वयंम् का लिखा हुआ है और इसमें वे कहते हैं कि पटमचरि की अर्थात उसके शेष भागकी रचना तो मैं कर चुका, उस के बाद अब मैं हरिवंशमे अर्थात उसके भी शेषमें हाथ लगाता हूँ । यदि इस पद्यको हम त्रिभुवनका न माने तो फिर इस स्थानमें इसकी कोई सार्थकता ही नहीं रह जाती। और एक कड़वक ग्राठ यमकका तथा एक यमक दो होता है पद दिन पइडिया दोनो १६ मात्रायें होती हैं । ग्राचार्य हेमचन्द्र के अनुसार चार पड़ियां यानी आठ पंक्तियाका कड़क होता है । हर एक कवक अन्त में एक घना या अवक होता है। स्वयंको ६२ मन्धियों समाप्त करनेन छह वर्ष तीन महीने और ग्यारह दिन लगे। फाल्गुन नक्षत्र तृतीया तिथि, बुधवार और शिव नामक योग से युद्धकाण्ड समाम हुआ और भाद्रपद दशमी, रविवार और मूल नक्षत्रमं उत्तरकाण्ड प्रारंभ किया गया। ६ राम लक्ष्मण श्रादि बीसवें तीर्थकर मुनिसुव्रत के नीर्थम हुन त माना जाता है। मनिन चरित की ही संक्षेप 'मुव्ययचरिय' कहा है। मुव्वयचरियको मुडयचरिय ग़लत रहा गया है 1
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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