________________
ब्र० शीतलप्रसादजीका वियोग !
( बा० जयभगवान वकील )
श्री० प्र० शीतलप्रसादजीके ता० १० फर्वरी सन् १९४२ को होनेवाले स्थायी वियोगसे जो भारी क्षति जैनसमाजको पहुंची है उसकी पूर्ति निकट भविष्यमें होना यदि असम्भव नहीं, तो मुशकिल जरूर है ।
आप जैनधर्मके एक अनन्यभक्त और जैनसमाजके एक सच्चे सेवक थे, स्वभावसे बड़े ही उदार और सुधारकवृत्ति वाले थे। आप जैनियोको अनेक टुकड़ियोमे बॉटने बाले दिगम्बर श्वेताम्बर, अग्रवाल खण्डेलवाल, दस्सा बीसा आदि सब ही भेद-भावोंको सम जसत्ताके लिये अत्यन्त हानिकारक समझते थे। इन भेदभावों के कारण अथवा सामाजिक कुरीतियों और धार्मिक कुरूढियों के कारण जैनियोंकी दिन-पर-दिन घटती हुई जनसंख्याको देखकर आप बहुत ही दुःखित होते थे। संकीर्णताके इन पाशोंसे, रूढ़ियोंके इन अन्धेरे गड्ढों से निकालनेके लिये श्राप आपस में हेलमेल, विवाहसम्बन्ध, धार्मिक एकता बढ़ानेकी सदा नई नई योजनाएँ करते रहते थे । आप जैन जातिको एक फलती फूलती जीविन जाति बनानेके लिये सब ही रचनात्मक कार्यों में, प्रगतिशील आन्दोलनोंमें बढ़ बंद कर भाग लेते रहते थे। इन उद्देश्योंकी पूर्तिके लिये थापने कई सभा-सोसाईटियोंके बनाने में सहयोग दिया था। जैन
जैन सब ही लोगों में धर्मप्रचार करनेके लिये श्रात्मधर्मसम्मेलन बनाया था, सामाजिक संघटन के लिये जैनमहा. मण्डल चलाया था, रचनात्मक काम करनेके लिये परिषद को जन्म दिया था और समाज में क्रान्तिकारी सुधार लाने के लिये 'सनातन जैनसमाज' को कायम किया था ।
जहाँ अन्य विद्वान अंग्रेजी शिक्षित युवकोंको धर्मभ्रष्ट जानकर उनकी अवहेलना करते थे, वहाँ आप उन्हें खूब अपनाते, उनमें धार्मिक प्रेम, और धार्मिक जिज्ञासा बढ़ाने के लिये जगह जगह बोर्डिंग हाऊस, पुस्तकालय खुलवाते थे उन्हें धार्मिक शिक्षा दिये जानेका प्रबन्ध करते थे । उनका दृष्टिकोण समझ अपना दृष्टिकोण समझाते, उन्हें
धर्मका सर्वतोभद्र व्याकरूप दिखा सत् मार्गपर लगाते थे । श्राज जैनसमाजके अधिकांश अंग्रेजी लिखे पदोंमे जो कुछ धर्मनिष्ठा और धर्मपरायणता दिखाई देती है, उसका बहुत कुछ श्रेय आपको ही है।
श्राप जहाँ हृदयसे बहुत उदार थे, वहाँ श्राप विचारमें भी बहुत उदार थे, श्राप साम्प्रदायिक भेदभावको छोड़कर हिन्दू, बौद्ध, सिक्ख, ईसाई सब ही प्रकारके नेता और विद्वानोंसे मिलते, उनके पास जाकर ठहरते, उनसे विचारगोष्टी करते और उनके तथा अपने विचारोंमें समन्वय लानेकी कोशिश करते थे ।
आप बड़े ही कर्मठ थे, दिन-रात के २४ घण्टोंमें आप मुशकिल से छह घण्टे विश्राम करते थे। शेष सारा समय आरमसाधना और धर्मसेवामें लगाते थे । त्रिकाल सामायिक, जिनबिम्बदर्शन, शास्त्र-स्वाध्याय, ग्रन्थ-अनुवाद, नवीन साहित्य-रचना, उपदेश शिक्षण, शास्त्रसभा, पत्रपत्रिका वाचन, चिट्ठी-पत्री, और जैनपत्रोंके लिये लेख लेखन-सब ही काम आपका दैनिक प्रोग्राम था। इसके लावा पर्व के दिनोंमें उपवास भी रखते थे ।
सालके आठ महीने श्राप भारत भ्रमण में लगाते, और वर्षाके चार महीने किसी नगरमें ठहरकर बिताते थे । आप जहाँ कहीं जाते वह ग्राम सभाएँ कराकर सब ही को जैनधर्मका स्वरूप और इतिहास समझाते, गृहस्थों के कर्त्तव्य बतलाते, लोगोंको स्वाध्याय, जिनविम्बदर्शन, अष्टमूल गुण, पञ्च धरणुवतके नियम दिलाते, और चलते समय वहाँके सारे हालात लिखकर जैनपत्रोंको प्रकाशनार्थ भेज देते ।
चौमासमें आप जिस नगरमें ठहरते, वहाँ सार्वजनिक सभा, शास्त्रसभा, धर्मउपदेश, बृहत् पूजाविधान, दीक्षासंस्कार विधान, प्रीतिभोज आदि कार्योंद्वारा इतनी धार्मिक जागृति पैदा करते कि बहाँकी कायापलट ही कर देते । वहाँके स्त्री-पुरुषोंको अनेकविध प्रोत्साहन देकर खूब ही