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________________ किरण ५] जैन-शास्त्र भण्डार सोनीपतमें मेरे पांच दिन यह स्वाभाविक था कि मेरे हृदयमे प्रारम्भसे लेकर उनके आदेशोका सर्वत्र प्रचार किया जाय । परन्तु कार्य-समाप्ति पर्यन्त जैन साहित्य सम्बन्धी विचार आज कौन नहीं जानता कि जैनियोने अपने प्राचार्यो उठते रहे। की इस आज्ञाकी बहुत कुछ उपेक्षा की है और उनकी जनसमाजकी सबसे बड़ी निधि, कोप अथवा इस लापरवाहीके कारण अधिकांश जैनग्रन्थ तंगसम्पत्ति जैनशास्त्र है। इनसे जैनसमाजको जीवन तारीक गीली कोठड़ियोमे पड़े दीमकों तथा चूहो के मिला है, संसारके मनुष्योंको सुख-शान्ति तथा भोजन बने रहे । वर्षों तक वे बिना धूप देखे सड़ते आध्यात्मिकताका उपदेश मिला है और गिरते हुए रहे, जीर्ण-शीर्ण होते रहे और आखिरको रदीमे प्राणियोको उटने में सहारा मिला है। जनसमाजका बेचे गये या फेक दिए गये। न वे हमारे काम प्रा ममस्त वैभव, समस्त धन-सम्पत्ति भी इसपर न्योछा- सके और न दृसरोके । लक्ष्मीक लोलुप भार झूठी वर कर दी जाय, तो भी कुछ नहीं। हमारे ऋपियो, प्रभावनाक इच्छुक जनसमाजने हाथी, घोड़ों, रथों, मुनियों और प्राचार्योको हमको तथा संसारको यह धर्मशालाओं तथा बिम्बप्रतिष्ठानों पर तो अपना सबसे बड़ी देन है। इन शास्त्रोंम उनकी वपकी गहन नामवरीके वास्ते रुपया पानीकी तरह बहाया, किन्तु तपस्या महान साधना और गहरे चिन्तनका फल अपने शास्त्रोकी रक्षा तथा प्रचार के लिए कुछ भी न संनिहित है। कौनसा विपय है, जिसपर उन्होंने फिया । पचासो वर्षकी जागृति के इस दौर भी, क्या अपने अमूल्य विचार प्रकट नहीं किए ? साहित्यका कोई कह सकता है कि जनसमाजने अपन शास्त्रोकी कौनमा अङ्ग है जिसकी पूर्तिक लिए उन्होंने जीवन रक्षा तथा प्रचार के लिए उस धनका सावाँ भाग भी नही लगाया ? भारतवपकी प्राकृत, संस्कृत, अध- खर्च किया जो उसने मन्दिर-मतियो, धर्मशालाओ, मागधी, गुजराती, अपभ्रंग, मराठी, तामिल, कनडी, प्रतिष्ठाओं, अंपवालया और धर्म के नाम पर की हिंदी आदि कोनमी भाषा है जिसमें उन्होंने ग्रंथ-रचना जाने वाला मुकदमबाजी पर खर्च किया है ? किया नहीं की ? ग्रन्थोके लेखन-कार्यम लेखफोकी पीठ भुक भी कैम जाता ? जबकि जैनममाजको ज्ञान-विज्ञान के गई, गरदन मुड़ गई, दृष्टि स्थिर होगई, मुग्व नीचा साथ सच्चा प्रेम न हो और उसके सिर पर झूठी पड़ गया और उन्होंने ये ग्रन्थ सैकड़ों वर सहकर भी नामवरीका भूत मवार हो ! विनयक नामपर इन लिखे । उनका आदश था कि इनका पुत्रांक समान शाम्रोंकी कितनी अविनय हुई है, इमे आज कौन नही पालन किया जाय।' जानता ' हमने जैनधर्मके जीवन प्रांतोंको सूबने किन्तु हमने उनके महान ऋणका बदला जिस और सड़ने दिया । इमका जो फल होना चाहिये था, कृतघ्नतास चुकाया उसको लिग्यते कलम कांपती है, वही हा जैनधर्म. उसके उन सिद्धान्तों पर जैन बदनके रोंगटे खड़े हो जाते हैं और ऑखोम ऑसू संस्कतिको न हम समझ पाए और न दसरे । जैनधर्म आ जाते हैं । उनको कभी स्वप्न में भी यह विचार और उसके इतिहासके बारमें हम ही नही किन्तु न आया होगा कि जिन ग्रन्थोको वर्षोक अध्ययन, अन्य विद्वान भी अपरिचित रह गए और खूब भ्रम साधन, अनुभव तथा चितनके बाद वे लिख रहे है, फैले। सच पूछिये तो इसकी तमाम जिम्मेवारी वे ऐसे आदमियोके हाथो में पहुँच जायगे जो उनकी हमारे ऊपर ही है। क्या हम आज भी अपनी भूल रक्षा करने, उनको समझने तथा उनके द्वारा दूसराको सुधार सकते हैं क्या जैन समाज जैन साहित्यक मक्तिका मार्ग दिखाने में असमर्थ होगे । उनकी आज्ञा उद्धार तथा प्रचारके लिए दस-बीस ट्रस्ट बना सकता तो यह थी कि जैन ग्रन्थोकी पूर्णतया रक्षा करते हुए है ? आजमे बीस वर्ष पहले मैने हिन्दी जैनगजटमें १ भग्नपृष्ठि-कटि-ग्रीवा स्तब्धदृष्टिरधोमुखम् एक लेख द्वारा जैनसमाजका ध्यान इस ओर आककष्टेन लिखितं शास्त्रं पुढेन प्रतिपालयेत् । र्षित किया था। आज मै फिर ये शब्द लिख रहा हूँ।
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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