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________________ २०० अनेकान्त [ वर्ष ५ मेरी तजबीजें निम्नलिखित हैं: बच्चोंको विद्यालयों में पढ़ने के लिए न भेजेगा। इस (१) जैन साहित्यके तमाम ग्रंथोंको शीघ्रसे शीघ्र मामलेमे समाजको वणिक-बुद्धिको छोड़कर क्षत्रियमागि कचन्द्र ग्रन्थमालाकी तरह मूलरूपमें प्रकाशित उदारतामे काम लेना चाहिए। किा जाय। उपरोक्त उद्गारोंको लिखने के बाद अब मै जैन (२) उच्चकोटि के जैनग्रन्छोंका मातृभाषा हिन्दीमें शास्त्रभण्डार सोनीपतके अपने कुछ अनुभव लिखता अनुवाद किया जाय । र उसके प्रकाशनार्थ सस्ता है, ताकि उनसे और भी परिचित हो जाएँ। साहित्य-मण्डल के ढगकी संस्था कायम की जाय । मैन वहां ५ दिन घंटे प्रतिदिनके हिमाबम (३) भिन्न-भिन्न प्रान्तीय भापाश्रोमें जेनग्रन्थोक काम किया । पहिले दिन काम बहुत कम हुश्रा और अनुवाद प्रकाशित करने के लिए कुछ सुव्यवस्थित सहायक भी केवल दोपहरके बाद ही मिले । कुल ट्रस्ट क़ायम किये जाये। तीम ग्रन्थोका विवरण लिख सका । कुछ निराशा हुई (४) जगह जगह जैन पुस्तकालय और केन्द्रोमे और काम लम्बा नजर आया। अगले दिन एक-दो केन्द्रीय सिद्धान्त भवन स्थापित किये जाये, जहां और सहायक मिल गए और काममें प्रगति याने समस्त ग्रंथोका संग्रह रहे। लगी। इस प्रकार जिम कामक लिये प्रारम्भमे एक (५) जैन शास्त्रों के अच्छे आलं चनात्मक, सस्ते भी सहायक न था, उसके लिए बादमे काफी सहायक तथा सुसम्पादित संस्करण निकाल जाये। होगा। सोनीपनमें जैन जनताके दृष्टिकोगामे अब (६) तमाम शास्त्रोकी प्रशस्तियों को संग्रह करके बहत परिवर्तन पाया और सब इस कार्यकी आवश्यउन्हें बहुतसे भागोमें प्रकाशित किया जाय। कना तथा महत्वको ममझने लगे है। जिनने प्रन्थ (७) प्रत्येक आचार्य के ग्रन्थोको सुसम्पादित पं. उमरावमिहकी प्रेग्गामे मंबन १६५०-६० के रूपमे उनकी जीवनी के साथ प्रकाशित किया जाय। बीच भण्डारम आप, इतने कभी नही आये । उस (८) जनसाहित्य में पारगामी विद्वान तयार जमानेमे लोगोंकी अवस्था भी अच्छी थी और था करने के लिये संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, पाली, कन्नड लोगोम उत्साह । उम उत्माहका पंडितजीने खूब उप आदि भाषाओक एम0 0०, शास्त्रियों तथा आचार्यों योग किया । हम्नलिखित ग्रंथोकी लिपिम इतना अन्तर को विशेष छात्रवृत्ति देकर दो-दो साल साहित्यिक है और इतना परिवर्तन होता रहा है, कि एक ही खोजमे ट्रेनिग दी जाय । ऐसे विद्वानोको वीरसंवा भण्डारके ग्रंथ देवनागरी अक्षगक विकास या भिन्नता मन्दिर मरमावा, भण्डारकरइन्स्टीटपट पूना, स्याद्वाद को खव प्रकट करते है। लेखकोमें शुद्ध तथा सुन्दर महाविद्यालय काशीमे भेजा जाय तथा प्रोफमर हीग- लेखनका खूब रिवाज था । आज सुन्दर लेग्बनकी लालजी और डाक्टर ए०एन० उपाध्यायके पास तरफ न अध्यापकोंका ध्यान है और न विद्यार्थियो छोड़ा जाय ताकि वे उनके काममे सहायता भी दे का। इमकी तरफ जनताको ध्यान देनेकी जरूरत है। सके और ट्रनिंग भी पा सके। भण्डारोंसे शास्त्र देने और वापिस लेनेकी मुव्यवस्था (2) जैन विद्यालयोंके धर्म-न्याय आदिके होनी चाहिए, यह नहीं कि जो शास्त्र जाय उसके अध्यापको और जेन विद्वानोके वेतनका स्टैडर्ड वापिस आनेकी चिता ही न रहे। बहुतमे शास्त्र इसी इतना ऊँचा किया जाय कि संवाके अलावा बतौर तरह गुम होते है। स्वाध्याय करनेके पश्चात शास्त्रके आजीविकाके यह काम आकर्षक बन जाय । इसको पृष्ठ क्रमवार लगाने चाहिए। इस मामले में लगभग सम्मानका काम बनाया जाय। बाजार के कम्पीटीशन ५० प्रतिशत ग्रन्थोंमें गड़बड़ पाई गई। जितने शास्त्र की चीजे पंडितोंको न बनाया जाय । २५),३०)रु० की क्रमस लगे रहेगे, उतनी ही आसानी रहेगी और मासिक वृत्तिके लिए कोई भी स्वाभिमानी जैन अपने समय कम लगेगा । जहां तक हो एक वेष्टनमें एक ही
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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