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________________ बुद्धिवाद-विषयक कुछ विचार ( संग्रहकर्ता-दौलतराम 'मित्र' ) (१) "बुद्धि हमें जीवनकी अनेक अवस्थाओंमे पार () "इस संसारमें हम बुद्धिक द्वारा थोड़ी ही ले जाती है सही, परन्तु संकट और प्रलोभन चीजोंको समझ सकते हैं। इसीस ज्ञानियोंफो क समय तो वह हमारा साथ नहीं देती।" ज्यों-ज्यों ज्ञान प्राप्त होता जाता है, वे नम्र (२) "बुद्धिवाद तभी तक प्रशंसनीय है जब तक कि बनते जाते हैं। क्योंकि ज्ञान तो अपने वह सर्वज्ञता का दावा न करने लगे। सर्वज्ञता अज्ञानका पहाड़ देखनेमें हैं। जितना ही का दावा करने पर तो वह (बुद्धि) भयङ्कर गहरा वह उतरता है, उतना ही वह देखता है राक्षसी है।" कि वह तो कुछ भी नहीं जानता । बल्ति. ( ३) "अकला (कोरा) बुद्धि-विकास मनुष्यको विकृत, जितना वह जानता है वह सबका सब उसका धूर्त, और अप्रामाणिक बनाता है।" अनुमान-कल्पना-मात्र है।" (म० गांधी) (४) "अतिशय तर्क-वादसे बुद्धि तेजस्विनी नहीं (१०) "हम जानते थे इल्मसे कुछ जानेगे। बनती, तीव्र भले ही होती हो। तर्क-वितर्ककी मगर जाना तो यह जाना कि न जाना कुछ भी।" अतिशयितासे बुद्धिको भ्रष्ट होते किसने न (उस्ताद 'जौक') देखा होगा ?" (११) "बुद्धिसे पूछा कि तेरे इन्द्रियाँ नही, परन्तु ( ५ ) “प्रलोभन देने में और महोत्पादन करनेमें मब कुछ ज्ञान है; आँखें नहीं, परन्तु सब कुछ बुद्धि अग्रणी है।" देखती है; किन्तु वह क्या शै है कि जिसके (६) "जगतमें जो आर्थिक अनीति-असमानता फैल- आगे तू भी सिर झुकाती है ?-वह बोलीती है, उसका बड़ा सबब बुद्धिका दुरुपयोग है। जिस हृदयेश्वर के विरह मे मै नित जलती हूँ, कृषि इत्यादि कर्मों को छोड़कर बुद्धिके- जब उसके दर्शन होते हैं तो मैं अपने प्राण द्वारा आजीविका प्राप्त करना बुद्धिका दुरुपयोग निछावर कर देती हूँ। उसके होते मै नहीं कहलाता है।" रह जाती।" (७) "मनुष्य का सारा जीवन त-शास्त्रके आधार (एक ईगनी कवि) पर नहीं बीतता । अकसर मनुष्य तक-शास्त्रका (१२) "रुवसत मिली जो बोलने की तो जवाँ नहीं। विरोधी बर्ताव करके भी अपने विवेक और जब तक रही जवाँ तो हम बज़बाँ रहे ।।" बल-चीर्यका परिचय देता है।" (मीर-असर) (८) "बेशक मंमार में ऐसे पदार्थ भी हैं जो बुद्धि- (१३) "इस संसारंग आकस्मिकघटना-उथलपुथल के खिलाफ नहीं, किन्तु उससे परे है। यह नामकी कोई चीज़ नहीं हैं । जो कुछ होता है, बात नहीं कि हम बुद्धिकी कसौटी पर उनकी नियमानुसार होता है। बात केवल यही है परीक्षा करना नहीं चाहते, लेकिन वे स्वयं ही कि हमारी बुद्धि की पामरता इतनी ज्यादा है बुद्धिकी मर्यादाम नहीं आते है। वे अपने कि हम उस नियमकी गतिस अनभिज्ञ रहते सहजरूपके कारण बुद्धिको थकादेते हैं।" ( म० गांधी) (म० गांधी)
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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