SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 337
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३१५ अनेकान्त [वर्ष ५ वाले विविध तपोनुमान, विविध ध्यान मागे और तकरा धर्माधिकार उतना ही है, जितना एक ब्राह्मण नानाविध त्यागमय आचारोंका इतना अधिक प्रभाव और क्षत्रिय पुरुषका । ६-मद्य मांस आदिका धार्मिक फैलने लगा था कि फिर एक बार महावार और बुद्ध __ और सामाजिक जीवनमें निषेध । ये तथा इनके जैसे के समय में प्रवर्तक और निवर्तक धर्म के बीच प्रबल लक्षण जो प्रवर्तक धर्मके आचारों और विचारोंसे विरोधको लहर उठी जिसका सवृत हम जैन-बोद्ध- जुदा पड़ते थे वे देशमें जड़ जमा चुके थे और दिनवाङमय तथा ममकालीन ब्राह्मण वाङमयमे पाते हैं। ब-दिन विशेष बल पकड़ते जाते थे। तथागत बुद्ध ऐसे पक्व विचारक और दृढ़ थे कि कमोवेश उक्त लक्षणोको धारण करने वाली जिन्होंने किमी भी तरहम अपने निवर्तक धर्ममें अनेक संस्थाओं और सम्प्रदायोम एक ऐसा पुराना प्रवर्तक धर्मक आधारभूत मन्तव्यों और शास्त्रोंको निवर्नकधर्मी सम्प्रदाय था जो महावीरके पहिले श्राश्रय नहीं दिया । दीर्घ तपस्वी महावीर भी ऐसे ही बहुत शताब्दिोंसे अपने वाम ढंगसे विकास करता कट्टर निवर्तक धर्मी थ। अतएव हम देखते है कि जा रहा था। उसी सम्प्रदायमे पहिले नाभिनन्दन पहिले से आज तक जैन और बौद्ध संप्रदायमे अनेक ऋषभदेव, यदुनन्दन नेमिनाथ और काशीराजपुत्र वेदानुयायी विद्वान ब्राह्मण दीक्षित हए फिर भी पाश्वनाथ हा चुके थे, या वे उम सम्प्रदायमे मान्य उन्होंने जैन और बौद्ध वाडमयमे वेद के प्रामाण्य पुरुप बन चुके थे। उस सम्प्रदायक ममय समय पर स्थापनका न कोई प्रयत्न किया और न किसी ब्राह्मण अनेक नाम प्रसिद्ध रहे । यनि, भिक्षु, मुनि, अनगार, प्रन्थविहित यज्ञयागादि कर्मकाण्डको मान्य रखा। श्रमण आदि जैसे नाम तो उस मम्प्रदायके लिए शताब्दियों ही नहीं बल्कि महस्रादि पहलेम व्यवहत होते थे पर जब दीर्घ तपम्बी महावीर उस लेकर जो धीरे धीरे निवर्तक धर्भक अग प्रत्यंग रूप सम्प्रदायके मुखिया बने तब सम्भवतः वह सम्प्रदाय में अनेक मन्तव्यो और आचागेका महावार बुद्ध निग्रन्थ नामसे विशेष प्रसिद्ध हुआ। यद्यपि निवर्तक तक के समयमे विकाम हो चुका था वे मंक्षेपमे ये धर्मानुयायी पन्थोंमें ऊँची आध्यात्मिक भूमिका पर हैं: १-श्रात्मशुद्धि ही जीवनका मुख्य उद्देश्य है, न पहुँचे हुये व्यक्तिके वास्ते 'जिन' शब्द साधारण कि ऐहिक या पारलाविक किसी भी पदका महत्त्व। रूपमें प्रयुक्त होता था। फिर भी भगवान महावीरके २-इस उद्देश्यकी पृतिम बाधक आध्यात्मिक मोह- समय में और उनके कुछ समय बाद तक भी महावीर अविद्या और तजन्य तृष्णाका मुलोच्छेद करना। का अनुयायी साधु या गृहस्थ वर्ग 'जैन' (जिनानुयायी) ३-इसके लिए आध्यात्मिक ज्ञान और उसके द्वारा न.मस व्यवहृत नहीं होता था। आज जैन' शब्दसे मारे जीवन व्यवहारको पूर्ण निम्तृप्ण बनाना । इमक महावीरपोषित सम्प्रदायके त्यागी, गृहस्थ सभी वास्ते शारीरिक, मानमिक, वाचिक, विविध तपस्याओं अनुयागिनोंका जो बोध होना है इसके लिये पहिले का तथा नाना प्रकारके ध्यान-योग-मार्गका अनुमरण निमगन्थी और समरणोवामग आदि जैसे शब्द व्यवहन और तीन चार या पांच महायतोंका यावज्जीवन होते थे। अनुपान । ४-किमी भी आध्यात्मिक अनुभव वाले इस निर्ग्रन्थ या जैन सम्प्रदायमें ऊपर सूचित मनुष्य के द्वारा किसी भी भाषामें कहे गये आध्यात्मिक निवृत्ति धर्म के सब लक्षण बहुधा थे, ही पर इसम वर्णन वाले बचनोंको ही प्रमागारूपसे मानना, न ऋषभ आदि पूर्व कालीन त्यागी महापुरुषोके द्वारा कि ईश्वरीय या अपौरपेय पमे स्वीकृत किसी खाम तथा अन्नमें ज्ञातपुत्र महावीरके द्वारा विचार और भाषामें रचित ग्रन्थोंको। ५---योग्यता और गुरुपदकी आचारगत ऐमी छोटी बड़ी अनेक विशेषताएं आई कमीटी मात्र जीवनकी आयात्मिक शुद्धि, न कि थी व स्थिर हो गई थी कि जिनसे ज्ञातपुत्र महावीरजन्मसिद्ध वर्गविशेष । इम दृष्टिसे स्त्री और शद्र पोषित यह सम्प्रदाय दूसरे निवृत्तिगामी मंप्रदायोमे खास
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy