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किरण ८-१]
जैनसंस्कृतिका हृदय
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जुदारूप धारण किये हुये था। यहां तक कि यह जैन संघर्ष में भी आना पड़ा। इस सघर्ष में कभी तो जैन सम्प्रदाय बौद्ध सम्प्रदायसे भी खास फर्क रखता था। आचार विचारोंका असर दूसरे सम्प्रदायों पर पड़ा और महावीर और बुद्ध न केवल समकालीन हो थे बल्कि कभी दूसरे सम्प्रदायोंके आचार-विचारोंका असर वे बहुधा एक ही प्रदेशमें विचरने वाले तथा समान जैन सम्प्रदाय पर भी पड़ा । यह क्रिया किसी
और समकक्ष अनुयाइयोंको एक ही भाषामें उपदेश एक ही समय में या एक ही प्रदेशमें किसी एक करते थे। दोनों के मुख्य उद्देश्य में कोई अन्तर नहीं ही व्यक्तिक द्वारा सम्पन्न नहीं हुई। बल्कि दृश्यथा। फिर भी महावोर-पोपित ओर बुद्धसंचालित अदृश्य-रूपमे हजारों वर्ष तक चलती रही सम्प्रदायां में शुरूसे ही नासा अन्तर रहा जो ज्ञातव्य और आज भी चालू है। पर अन्तमें सम्प्रदाय है । बौद्ध संप्रदाय बुद्धको ही प्रादर्श रूपसे पूजता है और दृमरे भारतीय भारतीय सभी धर्म सम्प्रदायो तथा बुद्ध के ही उपदेशोंका श्रादर करता है ज । कि का एक स्थायी सहिष्णुता पूर्ण समन्वय सिद्ध हो गया जैन सम्प्रदाय महावीर श्रादिको इष्टदेव मान कर है जैसा कि एक कुटुम्बके भाइयोमें होकर रहता है। उन्हीं के बचनोंको मान्य रखना है। बौद्ध चित्तशुद्धिके इम पाढ़ियो के ममन्वयक कारण साधारण लोग यह लिये न्यान और मानसिक मंयम पर जितना ज़ोर जान ही नहीं मकते कि उसके धार्मिक आचार-विचार देते हैं उतना जोर बाह्य ता और देहदमन पर नहीं। की कानमी बात मालिक हैं और कौनसी दसरा के जैन ध्यान और मानसिक सयमके अलावा देहदमन मंसर्गका परिणाम है। जैन आचार-विचारका जो पर भी अधिक जोर देते रहे हैं। बुद्धका जीवन असर दूसरों पर पड़ा है उसका दिग्दर्शन कराने के नितना लोकोमं हिलने-मिलने वाला तथा उनके उप- पहिले दूसरं सम्प्रदायोके आचार विचारका जैन माग देश जितने अधिक सीधे-माद लोक-मेवागामी हैं पर जो असर पड़ा है उसे मंक्षेपमें बतलाना ठीक वैसा महावीरका जीवन तथा उपदेश नहीं हैं। बौद्ध होगा, जिसमें कि जैन मंस्कृतिका हार्द सरलतास अनगारकी बाह्यचर्या उतनी नियन्त्रित नहीं रही समझा जा सके। जितनी जैन अनगारोकी । इसके सिवाय और भी इन्द्र, वरुण आदि स्वर्गीय देव-देवियों की स्मृति अनेक विशेषता है जिनके कारण बौद्ध सम्प्रदाय उपासना स्थान में जैनोंका आदर्श निष्कलंक मनुष्य भारतक समुद्र र पर्वतोंकी सीमा लाँधकर उम की उपासना । पर जैन आचार-विचारमें वे बहिष्कृत पुराने समयमं भी अनेक भिन्न भिन्न भाषाभाषी सभ्य देव देवियां. पुनः गौण रूपसे ही सही, स्तुति-प्रार्थना असभ्य जातियोंमे दूर दूर तक फैला और कराड़ों द्वाग घुम ही गई, जिसका कि जैन मंस्कृतिके साथ अभारतीयोने भी बौद्ध आचार-विचारको अपने अपने कोई भी मेल नहीं है । जैन परम्पराने उपासनामें ढगस अपनी अपनी भाषामें अतरा व अपनाया जब प्रताकरूपस मनुष्यमूर्तिको स्थान नो दिया, जो कि कि जैन सम्प्रदायके विषयमें ऐमा नहीं हुआ। उमई उद्देश्यक साथ मगत है,पर साथ ही उसके पास
यद्यपि जैन सम्प्रदायने भारतके बाहर स्थान पाम शृंगार व प्राइमरका इतना मंभार आ गया जो नही जमाया फिर भी वह भारतके दूरवर्ती सब भागों में कि निवृत्ति के लक्ष्यक साथ बिलकुल असंगत है। स्त्री धीरे धीरे न केवल फल ही गया बल्कि उसने अपनी और शुद्रको आध्यात्मिक ममानताके नाते ऊँचा उठान कुछ खास विशेषताओंकी बाप प्रायः भारत के सभी का तथा समाजमें ममान स्थान दिल नेका जो जैन भागोंपर थोड़ी बहुत जरूर डाली। जैसे जैसे जन संस्कृनिका उद्देश्य रहा वह यहा तक लुप्त होगया कि मम्प्रदाय पूर्वसे उत्तर और पश्चिम तथा दक्षिणकी न केवल उसने शद्रोको अपनानको क्रिया ही बन्द
ओर फैलता गया वैसे वैसे उस प्रवर्तक धर्मवाल नथा कर दी बल्कि उसने ब्राह्मण धर्म-प्रसिद्ध ज्ञात और निवृत्तिपंथी अन्य सम्प्रदायों के साथ थोडे बहत जातिकी दीवार भी खड़ा की। यहां तक कि जहां