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अनेकान्त
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ब्राह्मण परंपराका प्राधान्य रहा वहां तो उसने अपने परम्पराओं के प्राचार-विचार पुरानी वैदिक परम्परासे घेरेमेसे भी शद्र कहलानेवाले लोगोंको अजैन कहकर बिलकुल जुदा हो गए हैं। तपस्याके बारेमें भी ऐमा बाहर कर दिया और शुरू में जैन मंस्कृति जिस जानि- ही हुआ है । त्यागी हो या गृहस्थ सभी जैन तपस्याके भेदका बिरंध करनेमे गौरव समझती थी उसने उपर अधिकाधिक भुकते रहे हैं । इसका फल पड़ौमी दक्षिण जैसे देशों में नये जाति-भेदकी सृष्टि कर दी समाजोंपर इतना अधिक पड़ा है कि उन्होंने भी एक नथा स्त्रियोंको पूर्ण आध्यात्मिक योग्यताके लिये अम- या दूसरे रूपसे अनेकविध मात्विक तपम्या अपना मर्थ करार दिया, जोकि सष्टतःकट्टर ब्राह्मण परंपराका ली हैं। और सामान्यरूपमे साधारण जनता जैनोंकी ही असर है । मन्त्र-ज्योतिष आदि विद्याएं जिनका तपम्याकी ओर आदरशील रही है। यहाँ तक कि जैन संस्कृतिक ध्येयके साथ कोई सम्बन्ध नहीं वे भी अनेकवार मुसलमान म्म्राट तथा दूसरे समर्थ अधिजैन संस्कृतिमें आई। इतना ही नहीं बल्कि प्राध्या- कारियोंने तपस्यासे आकृष्ट होकर जैन मंप्रदायका त्मिक जीवन स्वीकार करने वाले अनगारों तकने उन बहुमान ही नहीं किया बल्कि उसे अनेक मुविधाएँ भी विद्याभोंको अपनाया । जिन यज्ञोपवीत आदि दी हैं। मदामांम श्रादि सात व्यसनोंको रोकने तथा संस्कारोंका मूलमें जैन संस्कृतिक साथ कोई सम्बन्ध उन्हें घटाने के लिये जैनवर्गने इनना अधिक प्रयत्न न था वे ही दक्षिण हिन्दुम्तानमे मध्यकाल में जन किया है कि जिससे वह व्यसन सेवी अनेक जातियों मंस्कृतिकारक अङ्ग बन गये और इसके लिये ब्राह्मण में सुमंकार डालने में समर्थ हश्रा है । यद्यपि बौद्ध परम्पराकी तरह जैन परम्परामें भी एक पुरोहिनवर्ग आदि दृमरे सम्प्रदाय पूरे बलसे इम मुसंस्कार के लिये कायम हो गया। यज्ञयागादिकी ठीक नकल करनेवाले प्रयत्न करते रहे पर जैनोंका प्रयत्न इस दिशामें आज क्रियाकाण्ड प्रतिष्ठा आदि विधियोमे आ गये । ये तक जारी है और जहां जैनोंका प्रभाव ठीक ठीक है नथा ऐसी दुसरी अनेक छोटी मोटी बाने इमलिये वहां इम स्वरविहारके स्वतंत्र युगमें भी मुमलमान घटी कि जैन मंस्कृतिको उन साधारण अनुयायियों और दूसरे मामभक्षी लोग भी खुलमखुल्ला मांस-मदा की रक्षा करनी थी जो कि दूसरे विरोधी सम्प्रदायोंमे का उपयोग करने में सकुचाते हैं। लोकमान्य तिलकने मे आकर उममें शरीक होते थे, या दसरे सम्प्रदायोंके ठीक ही कहा था कि गुजरात आदि प्रान्तोंमें जो आचार-विचारोंसे अपनेको बचा न सकते थे । अब प्राणिरक्षा और निमा म भोजनका आग्रह है वह जैन हम थोड़ेमे यह भी देखेंगे कि जैन सस्कृतिका दसगें परम्पराका ही प्रभाव है। न-विचार - सरणिका पर क्या त्रास असर पड़ा।
एक मौलिक सिद्धान्त यह है कि प्रत्येक वस्तुका ___ यों तो सिद्धांततः सर्वभूतदयाको सभी मानते है पर विचार अधिकाधिक पहलुओं और अधिकाधिक प्राग्गिर नाके ऊपर जितना ज़ोर जैन परम्पराने दिया, दृष्टिकोणोंमे करना और विवादास्पद विषयमें जितनी लगनसे उसने इस विषयमें काम किया उसका बिलकुल अपने विरोधी पक्षके अभिप्रायको नतीजा सारे ऐतिहासिक युगमें यह रहा है कि जहां भी उतनी ही महानुभूतिसे समझनका प्रयत्न जहां और जब जब जैन लोगोंका एक या दूसरे क्षेत्र करना जितनी कि सहानुभूति अपने पक्षकी ओर हो। में प्रभाव रहा वहां सर्वत्र आम जनता पर प्राणिरक्षा और अन्त में समन्वय पर ही जीवन व्यवहारका का प्रबल मंस्कार पड़ा है। यहां तक कि भारतके फैसला करना । यों तो यह सिद्धान्त सभी विचारकों के अनेक भागों में अपनेको अजेन कहनेवाले तथा जैन जीवन में एक या दूसहे रूपसे काम करता ही रहता विरोधी समझने वाले साधारण लोग भी जीवमात्रकी है। इसके मिवाय प्रजाजीवन न तो व्यवस्थित बन हिंसासे नफरत करने लगे हैं। अहिसाके इस सामान्य मकता है और न शांतिलाम कर सकता है । पर जैन मंम्कारके ही कारण अनेक वैष्णव आदि जैनेनर विचारकोंने उस सिद्धांतकी इतनी अधिक चर्चा की