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________________ जैनसंरतिका हृदय किरण ८-६ ] है और उसपर इतना अधिक जोर दिया है कि जिससे कट्टर से कट्टर विरोधी सम्प्रदायोंको भी कुछ न कुछ प्रेरणा मिलती ही रही है। रामानुजका विशिष्टाद्वैत उपनिपकी भूमिकाके ऊपर अनेकान्तवाद ही तो है । जैन संस्कृतिके हृदयको समझने के लिये हमें थोड़ेसे उन आदर्शोंका परिचय करना होगा जो पहिले से आजतक' जैन परम्परामै एकसे मान्य हैं और पूजे जाते हैं। सबसे पुराना आदर्श जैन परम्परा के सामन ऋषभदेव और उनके परिवारका है। ऋषभदेवने अपने जीवनका बहुत बड़ा भाग उन जवाबदेहियाको बुद्धिपूर्वक अदा करनेमें बिताया जो प्रजापालनकी जिम्मवारीके साथ उनपर आ पड़ी थी। उन्होंने उस समय के बिलकुल अपढ़ लोगोको लिखना पढ़ना सिखाया, कुछ काम-धन्धा न जानने वाले बनचरोका उन्होंने खेती बाड़ी तथा बढ़ई, कुम्हार आदिके जीवनोपयोगा धन्वे सिखाए, आपसमे कैसे बरतना, केंस समाज नियमो का पालन करना यह भी सिखाया। जब उनको महसूस हुआ कि अब बड़ा पुत्र भरत प्रजाशासनकी सब जवाबदेहियांका निबाह लेगा तब उसे राज्य-भार सौपकर गहरे श्रध्यात्मिक प्रश्नोकी छानबानक लिये उत्कट तपस्वी हाकर घर से निकल पड़े । ऋषभदेवकी दो पुत्रिया ब्राह्मा और सुन्दरी नाम की थी। उस जमाने में भाई-बहन के बीच शादीकी प्रथा प्र लिन श्री । सुन्दरीने इस प्रथाका विरोध करके अपनी साम्य तपस्यासं भाई भरतपर ऐसा प्रभाव डाला कि जिससे भरतने न केवल सुन्दरीके साथ विवाह करनेका विचार ही छोड़ा बल्कि वह उसका भक्त बन गया । ऋग्वेदके यमसूक्तम भाई यमने भगिनी यमीकी लग्न मांगको अस्वीकार किया जब कि भगिनी सुन्दरीने भाई भरतकी लग्न मांगको तपस्या पति कर दिया और फलतः भाई-बहन के लग्नकी प्रतिष्ठित प्रथा नामशेष हो गई । ऋपके भरत और बाहुबली नामक पुत्रों में राज्य के निमित्त भयानक युद्ध शुरू हुआ । अन्तमें द्वन्द युद्धका फैसला हुआ । भरतका प्रचण्ड प्रहार निष्फल गया । जब बाहुबलीकी बारी आई और समर्थनर ३१७ बाहुबलीको जान पड़ा कि मेरे मुष्टिप्रहारसे भरतकी अवश्य दुर्दशा होगी तब उसने उस भ्रातृविजयाभिमुख क्षणको आत्मविजय में बदल दिया । उसने यह सोच कर कि राज्यके निमित लड़ाई में विजय पाने और फिर वैर प्रति वैर तथा कुटुम्ब - कलह के बीज बोनेकी अपेक्षा सधी विजय अहंकार और तृष्णा- जय में ही है। उसने अपने बाहुबलका क्रोध और अभिमान पर ही चलाया ओर श्रवैरसे वैरके प्रतिकारका जोवन दृष्टान्त स्थापित किया । फल यह हुआ कि अन्तमे भरतका भी लोभ तथा गर्व खर्व हुआ । एक समय था जब कि केवल क्षत्रियोंमें ही नही पर सभी वर्गो में मांस खाने की प्रथा थी । नित्य-प्रति के भोजन, सामाजिक उत्सव, धार्मिक अनुष्ठान के श्रव सरो पर पशु-पक्षिओंका वध ऐसा ही प्र प्रतिष्ठित था जैसा आज नारियलों और फलोंका चढ़ना । उस युगमें यदुनन्दननेमि कुमारने एक अजीब क़दम उठाया। उन्होंने अपनी शादी पर भोजनके वास्ते कतल किए जाने वाले निर्दोष पशुपर्तिमूक वाणी से सहमा पिघल कर निश्चय किया कि वे ऐसी शादी न करेंगे जिसमें अनावश्यक और निर्दोष पशु-पक्षियोंका वध होता हो । उस गम्भीर निके साथ वे सबकी सुनी-अनसुनी करके वारान से शीघ्र वापिस लौट आये । द्वारका से सीधे गिरनार पर्वत पर जाकर उन्होंने तपस्या की । कौमारवयमं राजपुत्रीका त्याग और ध्यान- तपस्याका मार्ग अपनाकर उन्होंने उस चिर प्रचलित पशु-पक्षी वध की प्रथा पर आत्म-शन्तमं इतना सख्त प्रहार किया कि जिससे गुजरात भर में और गुजरातके प्रभाव वाले दूसरे प्रान्तों में भी वह प्रथा नामशेष हो गई और जगह जगह याज तक चली आने वाली पिंजरापोलोंकी लोकप्रिय संस्थाओ में परिवर्तित हो गई। 1 पार्श्वनाथका जीवन आदर्श कुछ और ही रहा है। उन्होंने एक बार दुर्वासा जैसे सहजकोपी तापस तथा उसके अनुयाइयोंकी नाराज़गीका ख़तरा उठा कर भी एक जलते सांपको गीली लकड़ी से बचाने का प्रयत्न किया । फल यह हुआ है कि आज भी जैन प्रभाववाले क्षेत्रों में कोई सांप तकको नही मारता ।
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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