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किरण ८-६]
जनसंस्कृतिका हृदय
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व्यक्तिके लिए गृहस्थाश्रम जरूरी है । उमे लांघकर पीछे संन्यास सहित चार श्राश्रमोंको जीवनमें स्थान कोई विकाम कर नही सकना । जबकि निवतेक धर्म दिया। निवतेक धर्म की अनेक संस्थाओं के बढ़ते हुए व्यक्तिगामी है। वह आत्मसाक्षात्कार की उत्कट वृत्ति जनव्यापी प्रभावके कारण अन्त में तो यहाँ तक से उत्पन्न होने के कारण जिज्ञासुको आत्मा तत्व है या प्रवर्तक धर्मानुयायी ब्राह्मणोंने विधान मान लिया कि नहीं, है तो वह कैसा है, उसका अन्य के साथ कैसा गृहस्थाश्रम के बाद जैसे संन्याम न्याय-प्राप्त है वमे ही सम्बन्ध है, उमका साक्षात्कार मंभव है नो किन किन अगर तीव्र वैराग्य हो तो गृहस्थाश्रम बिना किए भी उपायोंसे मभव है, इत्यादि प्रश्नोंकी और प्रेरित सीधे ही ब्रह्मचर्याश्रमस प्रवृज्यामार्ग न्याय-प्राप्त है। करता है। ये प्रश्न ऐसे नहीं है कि जो एकान्त चिंतन इस तरह जो प्रवतक धर्मका जीवन में समन्वय स्थिर ध्यान. तप और असंगतिपूर्ण जीवनके मिवाय मुलझ हुअा उमका फल हम दार्शनिक साहित्य और प्रजासके। ऐमा सञ्चा जीवन खाम व्यक्तियों के लिए ही जीवन में आज भी देखते हैं। मंभव हो सकता है। उसका समाजगामी होना मंभव जो तत्वज्ञ ऋपि प्रवतक धर्मक अनुयायी ब्राह्मणो नहीं। इस कारण प्रवर्तक धर्मका अपेक्षा निवर्तक धर्मका के वंशज होकर भी निवर्तक धर्मको पूरे तौरमे अपना क्षेत्र शुरूमें बहुन परिमित रहा। निवर्तक धर्मके लिए चुके थे उन्होने चिन्तन और जीवन में निवर्तक धर्म गृहस्थाश्रमका बन्धन था ही नहीं। वह गृहस्थाश्रम का महत्व व्यक्त किया। फिर भी उन्होंने अपनी पैतृक बिना किए भी व्यक्तिको मवत्यागकी अनुमति देता मंपत्तिरूप प्रवर्तक धर्म और उसके माधारभूत वेदों है। क्योंकि उसका आधार इच्छाका मंशोधन नही का प्रामाण्य मान्य रखा। न्याय-वैशेषिक दर्शनके और पर उसका निरोध है। अतएव वह प्रवर्तक धर्म पनिषद दर्शनके श्राद्यदृष्टा ऐम ही तत्वज्ञ ऋषि सम्भव सामाजिक और धार्मिक कर्तव्योसे बद्ध होने थे । निवर्तक धमके कोई कोई पुरस्कर्ता ऐम भी हुए की बात नहीं मानता । उसके अनुमार व्यक्तिके लिए कि जिन्होंने नप, ध्यान और श्रात्म साक्षात्कार के मुख्य कर्तव्य एक ही है और वह यह कि जिस तरह बाधक क्रियाकाण्डका तो श्रात्यंतिक विरोध किया पर हो श्रात्म-माक्षात्कारका और उसमें रुकावट डालने उम क्रियाकाण्डकी अाधारभून श्रुतिका सर्वथा विरोध वाली इच्छाके नाशका प्रयत्न करे।
नहीं किया। ऐसे व्यनियम सांख्य दर्शनक आदिजान पड़ता है इस देशमें जब प्रवर्तक धर्मा- पुरुष कपिल आदि ऋषि थे। यहा कारण है कि मूलमें नुयायी वेदिक आर्य पहले पहल अाए तब भी कही सांग्य-योगदशन प्रवर्तक धर्मका विरोधी होने पर भी न कही इम देशमें निवर्तक धर्म एक या दूसरे रूपमें अन्तम वैदिक दर्शनों में समा गया। प्रचलित था। शुम्में इन दो धर्म मस्थाओके विचारो समन्वयकी ऐसी प्रक्रिया इम देशमं शताब्दिों में पर्याप्त मंघर्ष रहा। पर निवर्तक धर्म के इने-गिने नक चली। फिर कुछ ऐम आत्यन्तिकवादी दोनोंधों मच्चे अनुगामित्रों की तरस्या, ध्यान प्रणाली और में होते रहे कि वे अपने अपने प्रवर्तक या निवर्तक अमगचर्याका साधारण जनता पर जो प्रभाव धर्म के अलावा दूसरे पक्षको न मानते थे और न युक्त धीरे धीरे बढ़ रहा था उसने प्रवर्तक धर्म के कुछ बतलाते थे । भगवान महावीर और बुद्धके पहिले भी अनुगामियोको भी अपनी ओर खीचा और निवर्तक ऐसे अनेक निवर्तक धर्मके पुरस्कर्ता हए हैं। फिर भी धर्म की संस्थाका अनेक सरम विकास होना शुरू महावीर और बुद्ध के समयमें तो इस देशमं निवर्तक हृया। इसका प्रभावकारी फल अन्तमे यह हुआ कि धर्मकी पोषक ऐसी अनेक संस्थाए थीं और दूसरी प्रवर्तक धर्म के आधार रूप जो ब्रह्मचर्य और गृहस्थ अनेक ऐसी नई पैदा हो रही थीं कि जो प्रवर्तक धर्म दो आश्रम माने जाते थे उनके स्थान प्रबतक धर्म का उग्रतासे विरोध करती थी। अब तक नीचसे ऊँच परम्कामान पहले तो बानप्रस्थ महित तीन ओर नक के बगों में निवर्तक धर्म की छायामें विकास पाने