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________________ किरण ६-७ ] समन्तभद्र-भारती के कुछ नमूने अजंगमं जंगमनेययंत्रं यथा तथा जीवतं शरीरं । श्रीमत्सु पूर्ति क्षयि तापकं च स्नेहो वृथाऽत्रेति हितं त्वमाख्यः ।। २ । ' जिस प्रकार जंगम ( जड़ ) यंत्र स्वयं अपने कार्यमें प्रवृत्त न होकर जंगम पुरुषके द्वारा चलाया जाता है उसी प्रकार जीवके द्वारा धारण किया हुआ यह शरीर अजंगम है-बुद्धिपूर्वक परिस्पन्दव्यापार से रहित है—और एक यंत्रकी तरह चैतन्य पुरुषके द्वारा स्वस्यापार प्रवृत्त किया जाता है साथ ही बी हैपृात्मक है, पुति है-दुर्गन्ध युक्त है, यि है - नाशवान है—और तापक है - श्रात्मा के दुखोंका कारण है। इस प्रकारके शरीर में स्नेह रखना-प्रतिअनुराग बढ़ाना - वृथा है--उससे कुछ भी आत्मकल्याण नही संघ सकता, यह हितकी बात हे सुपार्श्वजिन ! आपने बतलाई है।' अलंघ्यशक्तिर्भवितव्यतेयं हेतुद्वयाविष्कृतकार्य लिंगा । अनीश्वरो जन्तुरकियार्तः संहत्य कार्येष्विति साध्ववादीः ॥ ३ ॥ 'आपने यह भी ठीक कहा है कि हेतुद्वय के — श्रन्नरंग और बाह्म अथवा उपादान और निमित्त दोनों कारणोके अनिवार्य संयोग द्वारा उत्पन्न होने वाला काही जिनका लगा है ऐसी यह भविता (समुचित समर्थ उपदेश मिलने पर भी किसी की हित में प्रवृत्ति नही होने देती शक्ति है-किसी तरह भी टाली नही ती अहंकार पीडित हुआ भवितव्यतानिरपेच [संसारी प्राणी ( यन्त्र-मन्त्र-तन्त्रादि ) अनेक सहकारी कारथोकी मिलाकर भी सुम्पादिक कार्योंके सम्पन्न करनेमे मम नहीं होगा। 1 २१६ विभेति मूल्योने ततोऽस्ति मोक्षो नित्यं शिवं वांति नाऽम्य लाभः । तथाऽपि बालो भय-कान वश्या स्वयं तप्यत इत्यवादीः ॥ ४ ॥ आपने यह भी बतलाया है कि संसारी प्रति मेरता है परन्तु (अध्यकि भविकलाश उस मृत्यु छुटकारा नहीं मिय ही कल्याण अथवा निर्वाण चाहता है परन्तु (भावीकी उसी अध्यशक्तिवश उसका लाभ नही होता । फिर भी यह मूड प्राणी भय और इच्छाके वशीभूत हुआ स्वयं ही वृथा तप्ताममान होता है । डरने तथा इच्छा करने मात्र बनता तो कुछ भी नहीं, उलटा दुःख संताप उठाना पडता है ।' सर्वस्य तत्त्वस्य भवान प्रमाता मातेव गुणावलोकस्य जनस्य नेता मया वालम्य हितानुशास्ता । क्या परिनेव्य ॥ ४ ॥ '( सुपरजिन) आप सहजीवाद विश्व माना है—शादिरहित ज्ञाता हैं. माता जिस प्रकार बालकको हितकी-उसके भलेकी शिक्षा देती है उसी प्रकार श्राप हेयोपादेयके ज्ञानसे रहित बालकतुल्य जनसमूहको हितका - निःश्रेयस (मोक्ष) तथा उसके कारण सम्यग्दर्शनादिका -- उपदेश देने वाले हैं, और जो गुणावलोकीजन है--गुणोकी तलाश में रहने वाला भव्यजीव है-उसके आप नेता हैं-- स्वयं बाधक कारणको हटाकर मी अनन्तदर्शनादि गुणोको प्राप्त करलेने के कारण उसे उन गुणोकी प्राप्तिका मार्ग दिखाने वाले हैं। इसीसे में भी इस समय भक्ति पूर्वक आपकी स्मृतिम प्रवृत्त हुआ हूं—मेरे भी आप नेता हैं, मुझे भी आपके सदृश, सनके प्रतापसे मामी गुणांकी प्राप्तिका मार्ग सूझ पडा है ।' [ - ] श्रीचन्द्रप्रभ-जिन स्तोत्र चंद्रप्रभं चन्द्र मरीचि-गीरं चन्द्र' द्वितीयं जगतीय कान्तम् । वन्देऽभवन्महतामृषीन्द्र जिन जितस्वान्त-कपाय-बन्धम ||१||
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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