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________________ [ वर्ष ५ 'मैं उन श्रीचन्द्रप्रभ-जिनको वन्दना करता हूँ, जो चन्द्रकिरण-सम-गौरवर्णये युक्त जगतमें द्वितीय चन्द्रमाकी समान दीप्तिमान् (और इस लिये ''इस सार्थक संज्ञा के धारक) हुए हैं, जिन्होंने अपने अन्तःकरण कानको जीता है-सम्पूर्ण क्रोधादिकषायक नाशकर अकपायपद एवं जनपद प्राप्त किया है और (इसी लिये) जो ऋद्विपारी मुनियों-गणधारिकों के स्वामी तथा महामाचोके द्वारा बन्दनीय हुए हैं।' - २२० अनेकान्त यस्याङ्ग- लक्ष्मी-परिवेप-भिन्नं तमस्तमोरेरिव रश्मिभिन्नम् । ननाश बा यह मानसं च ध्यानप्रदीपातिशयेन भिन्नम् ॥ २ ॥ 'जिनके शरीरके दिव्यप्रभामण्डलले बाह्य अन्धकार और ध्यान- प्रदीप के अतिशय से परम शुल्कध्यानके तेल द्वारा — प्रचुर मानस अन्धकार - ज्ञानावरणादि कर्मजन्य श्रात्माका समस्त श्रज्ञानान्धकार उसी प्रकार नाशको प्राप्त हुन जिस प्रकार कि सूर्य की किरणोमे (लोकमे फैला हुआ ) अन्धकार भिन्न- विदीर्ण होकर नष्ट हो जाता है ।' स्वपक्ष-सीस्थित्य मदाज्वलिता बासिंहनादैर्विमदा बभूवुः । प्रवादिनो यस्य मा गण्डा गजा यथा केशरिणो निनादैः ॥ ३ ॥ 'जिनके प्रवचनरूप सिंहनाद को सुनकर अपने मत पक्षकी सुस्थितिका घमण्ड रखने वाले उसे ही निर्वाध एवं काव्य समझकर मदोन्मत्त हुए- प्रवादिजन (परवादी) उसी प्रकारसे निर्मद हुए हैं जिस प्रकार कि मदकरते हुए मस्त हाथी केसरीसिंह की गर्जनाश्रीको सुनकर निर्मंद हो जाते हैं।' यः सर्वलोके परमेष्ठितायाः पदं बभूवाद्भुतकर्मतेजाः । अनन्तधामाऽक्षर-विश्वचक्षुः समन्तदुःखच्यशासन ॥ ४ ॥ 'जो श्रद्भुत कर्मतेज थे-अपने योगबल से जिन्होंने पर्वत समान कठोर कर्म पटलोका छेदनकर सदाके लिए अपने धामासे उनका सम्बन्ध विच्छेद किया था अथवा शुक्लध्यानामिके द्वारा उन्हें भस्मीभूत किया था— (ऐसा करके) अनन्त तेजरूप अविनश्वर विश्वको जिन्होंने प्राप्त किया था केवलज्ञान केवलदर्शनके द्वारा जो विश्व तचक ज्ञाता-दृष्टा थे, श्रौर जो सब ओरसे दुःखोंके पूर्णक्षयरूप मोक्षके शास्ता - उपदेष्टा थे— जगत्को जिन्होंने मोक्षमार्ग का यथार्थ उपदेश दिया था, और इस तरह (इन्हीं गुणों के कारण ) जो सम्पूर्ण लोकमे — त्रिभुनमे - परमेष्टिताके - परमप्राप्तताके पदको प्राप्त हुए थे ।' स चन्द्रमा भव्य कुमुदनीनां विपनदोषा-लव-लेपः । व्याकोश- चाङ न्याय मयूख मालः पूयात्पवित्रो भगवान्मनो मे ॥ ५ ॥ स्वयम्भूतंत्र 'वे दोपा = रात्रि, श्रभ्र = मेघ और कलंक = मृगछालादिके लेपसे रहित अथवा रागादिक दोषरूप अभ्र-कलंकके श्रावरण से वर्जित और सुस्पष्ट वचनोंके प्रणयनरूप - स्याद्वादन्यायरूप - किरण मालासे युक्त, भव्य कुमुदनियोंके लिए चन्द्रमा ऐसे पवित्र भगवान् श्रीचन्द्रप्रभजिन मेरे मनको पत्र करो उनके बन्दन कीर्तन, पूजन, भजन, स्मरण और अनुसरणरूप सम्यक् श्राराधनसे मेरा मन पवित्र होवे ।'
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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