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अनेकान्त
[वर्ष ५
बभार पद्मा च सरस्वती च भवान् पुरस्तात्प्रतिमुक्तिलक्ष्म्याः ।
सरस्वतीमेव समग्रशोभां सर्वमलक्ष्मी-ज्वलितां विमुक्तः ॥२॥ 'आपने प्रतिमुक्ति-लक्ष्मीकी प्राप्तिके पूर्व-अर्हन्त अवस्थासे पहले लक्ष्मी और सरस्वती दोनों को धारण किया है-उस समय गृहस्थावस्थामें श्राप यथेच्छ धन-सम्पत्तिके स्वामी थे, अापके यहां लक्ष्मीके अटूट भण्डार भरेथे, साथ ही अवधि-ज्ञानादि-लक्ष्मीसे भी विभूषितथे और सरस्वती अापके कण्ठमे स्थित थी। बादको विमुक्त होने पर-जीवनमुक्त (अर्हन्त) अवस्थाको प्राप्त करने पर-श्रापने उस पूर्णशोभा वाली सरस्वतीको-दिव्य वाणीको-ही धारण किया है जो सर्वज्ञ-लक्ष्मीसे प्रदीप्त थी-उस समय आपके पास दिव्यवाणीरूप सरस्वतीकी ही प्रधानता थी, जिसकेद्वारा जगतके जीवोंको उनके कल्याणका मार्ग सुझाया गया है।'
शरीर-रश्मि-प्रसरः प्रभोस्ते बालार्क-रश्मिच्छविरालिलेप ।
नराऽमराकीणे-समां प्रभा वा शैलस्य पद्माभमणेः स्वसानुम ।। ३॥ ___ 'हे प्रभो ! प्रात:कालीन सूर्य-किरणोंकी छविके समान--रक्तवर्ण श्राभाको लिये हुए आपके शरीरकी किरणोके प्रसार (फैलाव) ने मनुष्यों तथा देवताओंसे भरी हुई समवसरण-सभाको इस तरह प्रालिप्त (व्याप्त) किया है जिस तरह कि पद्माभमणि-पर्वतकी प्रभा अपने पार्श्वभागको प्रालिप्त करती है।
नभस्तलं पल्लवयन्निव त्वं सहस्रपत्राम्बुजगर्भचारैः। .
पादाम्बुजैः पानितमारदो भूमौ प्रजानां विजहार्थ भूत्यैः ।। ४॥ (हे पद्मप्रभ जिन !) आपने कामदेवके दर्प (मद) को चूर चूर किया है और सहस्रदल कमलोंके मध्यभाग पर चलने वाले अपने चरण-कमलोके द्वारा नभस्तलको पल्लवोसे व्याप्त-जैया करते हुए, प्रजाकी विभृति के लिये-उसमे हेयोपादेयके विवेकको जागृत करनेके लिये-भूतल पर विहार किया है।'
गुणाम्बुधेविप्रपमायजम्य नारखंडलः स्तोतुमलं नवः।
प्रागेव मादकिमुताऽतिभक्तिी बालमालापयतीमित्थम ।। ५ ॥ 'हे ऋषिवर श्राप अज हैं-पुनर्जन्मसे रहित हैं-, श्रापके गुण समुद्र के लवमात्रकी भी स्तुति करनेके लिये जब इन्द्र पहले ही समर्थ नहीं हुआ है, तो फिर अब मेरे जैमा असमर्थ प्राणी कैसे समर्थ हो सकता है। यह आपके प्रति मेरी अति भनि ही है जो मुझ बालकसे-स्तुति-विषयमे अनभिज्ञमे-इस प्रकारका यह स्तवन कराती है।'
किया है और यह
थापादेयके विवेकको जाक द्वारा नभस्तलको पल
सुपार्श्व-जिन-स्तोत्र स्वास्थ्यं यदात्यन्तिकमेप पुंसां स्वार्थो न भोगः परिभंगगत्मा।
तृपोनुषंगान्न च तापशान्तिरितीदमारख्यद्भगवान्सुपार्श्वः ॥ १ ॥ 'यह जो श्रात्यन्सिक स्वास्थ्य है-विभाव-परिणतिसे रहित अपने अनन्तज्ञानादि स्वाम-स्वरूपमै अविनश्वरी स्थिति है-वही पुरुषो का-जीवात्माओंका-स्वार्थ है-निजी प्रयोजन है, नणभंगुर भोग-इदिय-विषय-सुखका अनुभव-स्थार्थ नहीं है, क्योंकि इद्रिय-विषय-सुखके सेवनसे उत्तरोत्तर तृष्णाकी-भोगावांक्षाकी-वृद्धि होती है और उससे तापकी-शारीरिक तथा मानसिक दुःखकी-शान्ति नही होने पाती । यह स्वार्थ अस्वार्थका स्वरूप शोभन पार्थोंशरीरांगोके धारक (और इमलिये अन्वर्थ-संज्ञक) भगवान सुपाचंने बतलाया है।'