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________________ ३८४ अनेकान्त [वर्प । नाममे प्रसिद्ध था। उस समय बौद्ध नैयायिकोंके सामने वाचस्पति मिश्रने स्पष्टतया वसुबाशुका बतलाया है । प्रत्यक्ष लक्षणकी एक परंपरा थी और वह थी 'इन्द्रिय- किन्तु वसुबन्धु जिम समय 'विज्ञप्तिमात्रतासिद्धि' नामक संनिकर्ष' या 'इन्द्रियजन्यव्यवसायामक ज्ञानको प्रत्यक्ष प्रकरणग्रंथकी रचना करते हैं और उसमें विज्ञप्तिमात्र तत्व कहना। इसके विरोधस्वरूप चौद्धनैयायिकोंको प्रत्यक्षकी की प्रतिष्ठा करते हैं तो वे वहाँ रूपादि अर्थक विना भी परिभाषा दूसरी ही बनानी पडी। उन्होंने देखा कि इंद्रि- स्पादि-विज्ञप्तिरूप प्रत्यक्षको मानते है' और 'तै मिरिक' यसंनिकर्ष' और 'इन्द्रियजन्यव्यवमायान्मक ज्ञान' ये दोनों तथा 'स्वप्नवत्' दृष्टान्तके द्वारा अर्थाभावमे भी रूपादिही यथार्थ एवं वस्तुविषयक नहीं है, क्योंकि ये अर्थाभाव विज्ञप्तिक हानका समर्थन करते हैं, तब यह सदेह हो जाता में भी हो जाते हैं और इसका कारण विकल्पवासना है। है कि 'विज्ञान'कोश्यक्ष माननका सिद्धान्त बमुबन्धु अतः विकल्पवासनासे शून्य अर्थजन्यबोध ही प्रत्यक्ष है का है या उनके पूर्ववर्ती या समकालीन अन्य किसी और वही यथार्थ है-विकल्पात्मक इन्द्रियजन्य बोध या प्राचार्य का ? यह हो सकता है कि वसुबन्धु जिस समय जब इन्द्रियसंनिकर्ष प्रत्यक्ष नहीं है। दिग्नागके पहिले हमे विज्ञप्तिमात्र तस्व' के प्रतिष्ठापक न रहे ही उस समय ऐसे प्रत्यक्षकी मान्यताका आभास दिग्नागके प्रमाणसमुच्चय 'अर्थाद्विज्ञान' को प्रत्यक्ष माननेका उनका सिद्धान्त रहा हो। गत एक कारिका से मिलता है जिसमे दिग्नागने उसे कुछ भी हो, यह निश्चित है कि दिग्नागके पहिले वैसे खंडित किया है और कुछ अंशोंमें मान्य भी किया है। प्रत्यक्ष लक्षणकी मान्यता थी और वह 'अकल्पक' निर्विमाथ ही एक कारिकामे 'जास्याद्यसयुनं कल्पनापोढ' को कल्पक' 'प्रत्यक्षबुद्धि' 'रूपादिज्ञान' 'चक्षुगदिज्ञान' मादि प्रत्यक्षका लक्षण स्थिर किया है और दूसरी कारिका द्वारा नामांये ही प्रसिट था। प्रमागामा प्रत्यक्ष ज्ञानमें इन्द्रियोकी अमाधारणता एवं प्रधानता होने को खंडन करनेवाली वह कारिका इस प्रकार हैसे 'प्रत्यक्ष' नामकी सार्थकता और इन्द्रियजन्यता भी बत तमोर्थाद्विजानं प्रत्यति नत्र तु । लाई है। दिग्नाग द्वारा कथित और उत्तरवनी अनेक ततोऽर्थादिनि सर्व नयन तन्मात्रनो न हि ।। प्रथकारों द्वारा भी बंहित यह बौद्धप्रत्यक्षका लक्षण -प्रमाणम. का. १५ परपक्षश्रावकप्रत्येकबुद्धागतिलक्षणं तत्सम्यम्जानम्। ..." इस तरह यह निश्चितरूपमे कहा जा सकता है कि किन्तु उपमानमात्रमेतन्महामने यदुत गगानदीबालु प्रत्यक्ष निर्विकल्प' या 'अकल्पक'के नामसे दिग्नागके पहिले काममास्तायोगता समा न विपमा अकल्पविकल्पनतः।" भी माना जाता था और यह बौद्ध नैयायिकीकी खास -लकावनारमूत्र, पृ० २२८-३१ मान्यता थी। दिग्नागने इसमे मिर्फ अर्थजन्यताकी माली(ग) प्रत्यक्षबुद्धिः स्वानादौ यथा सा च यदा तदा। न साऽर्थों दृश्यते नस्य प्रत्यक्षत्वं कथं मतम् ॥१६॥ ततीर्थादिति यस्यार्थम्य याद्वजान व्यपादश्यनं याद नत --विज्ञतिमात्रना.सद्धिशिवा न तद्वान नाथान्नगद्भवात नत प्रत्यक्षमा -न्यायवार्तिक (उद्योनकर) पृ० ४० , "अात्मन्द्रियमनोऽर्थमनिकर्पत यन्निष्पद्यते तदन्यदिति" -वैशेषिकसूत्र ३, १, १८ १ "तदेवं प्रत्यक्षलक्षणं मध्य सुबन्धनता प्रत्यक्षलक्षण २ "इन्द्रियार्थमन्निकर्पोत्पन्न ज्ञानमव्यपदेश्यमव्यभिचारि व्यव विकल्पयितुमपन्यम्यति अपरे पनि।" सायात्मकं प्रत्यक्षम" -चायवानिकतापर्यटीका पृ० १५० -न्यायसूत्र १, १,४ ३ "प्रत्यक्ष कल्पनापोडं नामजात्पाद्यसंयुतम्" २ विज्ञप्तिमात्रमतदम्दावमा मनान" -विजन का. १ -प्रमाणम० का० : ३ द्वितीयका रिकाकी वृनिम भी, जो म्योपज जान पड़ती है, ८ "अमाधारण हेतुत्वाद यादेश्य तदिन्द्रिय." इस प्रकारका उल्लेग्व है- यदि विना रूपाद्यर्थन म्यादि विज्ञप्तिमत्पद्यत न रूपाद्यर्थात् । कस्मान काचहेश उत्पद्यते ५ बार पुनर्वर्णयन्ति ततीद्विजानं प्रत्यक्षामनि । तन्न. न सर्वत्र ... · ।" --------
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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