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किरण १२]
समन्तभद्र और दिग्नागमें पूर्ववर्ती कौन ?
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चना की और मुख्यतया इन्द्रियजन्यनाका समर्थन किया। नामक प्रकरण की निग्न कारिकामें पाया जाता है:साथ ही कल्पनाका परिष्कार और उसकी परिभाषा भी प्रत्यक्षबुद्धिः स्वप्नादौ यथा सा च यदा तदा। बांधी' । बादमें तो इस परिष्कृत करने और परिभाषा न सोऽर्थी दृश्यते नम्य प्रत्यक्षत्वं कथं मतं ।। बाधनेके कारण वह प्रत्यक्षका 'कल्पनापोढ' लक्षण दिग्नाग
-विज्ञप्ति का.. का ही कहा जाने लगा । यहां तक कि उत्तरवर्ती अनेक प्रकल्पक' और 'चीतविक्रूपधी' शब्दका प्रयोग भी ग्रंथकारोंन दिग्नागके नामसे ही अपने ग्रंथो में उसे उद्धत कर वैसा ही है. जैसा कि लंकावतारसूत्र' के पूर्वोद्धत गद्य और के खंडन भी किया है। दिग्नागमे कई शताब्दी बाद हुये पच भागमे 'प्रकल्पाविकल्पनतः' और 'निविकरूपं यदि ज्ञान' प्रबल बौद्ध तार्किक धर्मकीर्तिने दिग्नागके तथाकथित वाक्योमे उपलब्ध होता है। प्रत्यक्षलक्षणमें 'अभ्रान्त' विशेषण लगाकर उसे मंशोधित इमपरमे यह स्पष्ट है कि समन्तभद्र प्रथम धाराके और पग्विधित किया। इसके बादके दार्शनिकोके खंडन ही उल्लेग्वकर्ना हैं-वही उनके समयमें प्रवाहित थी। मंडनका विषय तो प्राय. धर्मकीर्तिका 'अभ्रान्त'-विशेषण- यदि दुसरी या तीसरी धारा प्रवाहित होती तोवे मुख्यतया विशिष्ट प्रत्यक्ष लक्षण ही हुआ है। इस तरह हम देखते दिग्नागके 'जात्यानामयुतकल्पनापोढ रूप परिष्कृत लक्षण हैं कि बौद्ध परंपरामे प्रत्यक्ष लक्षण के बारेमे तीन धाराएँ का या धर्मकीर्तिके 'अभ्रान्त'-विशेषणविशिष्ट लक्षणका पाई जाती हैं-दिग्नागकी पूर्ववतिनी २ दिग्नागीय अथवा दोनांका ही उन्लेख एवं पालोचन करते, जैसा कि और ३ धर्मकीतीय।
दिग्नागके उत्तरवर्ती नाविकाने दिग्नागीय प्रत्यक्षलक्षण अब देखना यह है कि समन्तभद्रके साहित्यमे इन और धर्मकीर्तिके उत्तरवर्ती दार्शनिकोने दिग्नागीय तथा नीन धाराओमसे कौनसी धारा लक्षित होती है ? इसके धर्मकीर्तीय दोनों प्रत्यक्षलक्षणोंका निर्देश एवं मंडन-मंडन लिये हम यहां वे स्थल उपस्थित करते हैं जहां समन्तभद्र किया है। और इसलिये कहना होगा कि समन्तभद्र उस ने बौद्धसम्मत प्रत्यक्षका निर्देश या अालोचन किया है। समय हुए हैं जबकि प्रत्यक्षके लक्षणविषयमे पिछली दो ममन्तभद्रके वे स्थल निम्न प्रकार है--
विचारधाराओंका जन्म ही नही हुआ था। फलत: (१) 'प्रत्यक्षबुद्धिः क्रमते न यत्र'
समन्तभद्र धर्मकीर्ति के ही नहीं किन्तु दिग्नागके भी -युक्त यनुशामन० का०,२ पूर्ववना है। (B) "प्रत्यक्ष निर्देशवदायरिखमकल्पकं ज्ञापयितुं (२) 'समन्तगद दिग्नागके पूर्ववर्ती है' इसका एक ह्यशक्यम"
-युक्तचनु० का०, ३३ प्रबल माधक प्रमाण और है और वह यह कि दिग्नागने (३) 'वीतविकल्पधीः का'-युक्त चनुशा० का०१७ प्रमाणममुच्चय-गत एक कारिकाके द्वारा प्रमाणके फखरूपमें यहाँ 'प्रत्यक्षबुद्धि' शब्दका प्रयोग उसी प्रकारका है
'अज्ञाननाश' का खंडन किया है और यह बतलाया है कि जिस प्रकार कि वह वसुबन्धु के विज्ञप्तिमानतामिद्धि' फल सत रूप होता है, 'प्रज्ञाननाश' आसन है और उसके १ "रशियन प्रो. चिर विटाकी लिखते हैं कि-दिमागने सभी जगह होनेका नियम भी नहीं है इसलिये 'अज्ञानकल्पना के पाँच भेद किये थे-जानि, द्रव्य, गुण, क्रिया नाश' प्रमाणका फल नहीं है । प्रमाणसमुच्चयकी उस
और परिभाषा।' -न्यायकु. भा०प्र० प्रस्ना पृ० १०६ कारिकाका प्रकृत अंश इस प्रकार है-- २(क) ''अरे तु मन्यन्ते प्रत्यक्षं कल्पनापोढमिति । अथ केय अज्ञानादेर्न सर्वत्र व्यवच्छेदः फलं न सत ।।२३ कल्पना? नामजातियोजनेति ।"
१ लंकारतारसूत्रका एक चीनी अनुवाद र,गणभद्र द्वारा ई. -न्यायवार्तिक पृ० ४१
___ मन् ४४३ (AD) म हुशा है, ऐमा प्रो० Bunyul (ख) “संप्रति दिनागस्य लक्षणमपन्यम्यति । अपर इति" -न्यायवा. तात्प. पृ० १५३
Nanlo M A ने मन् १६२६ के संस्करण (जापान) ३ वमुबंधुका ममय तत्वसंग्रहकी भूमिकामे २८०-३६०A D.
में प्रकट किया है और इसमें यह मत्र ईमाकी ५वीं दिया है, देखो, भूमि० पृ० LXVI
शताब्दीसे बहुत पहलेका बना हुअा जान पड़ता है।