SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 417
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३८६ अनेकान्त [वर्ष ५ अब विचारणीय यह है कि अज्ञान-व्यवच्छेद है वह तो वास्यायन के भाप्यमे भी पाया जाता है, जिन (नाश) को प्रमाणका फल किस दार्शनिकने स्वीकार किया का समय लगभग ईसाकी तीसरी-चौथी शताब्दी है। है। न्याय' वैशेशिक, २ मीमांसा और बौद्ध क्सिी किन्तु उत्तरार्धमें जो 'प्रज्ञाननाश' फल दिया है वह समन्तमी परंपराने तर्कयुगीन समयमें 'अज्ञान-नाश' को भद्रका स्वोपज्ञ है, जिसे पूज्यपादने भी अपनी सर्वार्थ सिद्धि प्रमाका फल नहीं माना। चुनोंचे प्रसिद्ध दार्शनिक मे "उपेक्षा अज्ञाननाशो वा फलम्" इस वाक्यके द्वारा विद्वान् पं सुखलालजीने भी प्रमाणमीमांसाके अपने भाषा. अपनाया है। और सिद्धसेन दिवाकरने, जिनका समय टिरामे ऐसा ही प्रतिपादन किया है ? उनके न्यायावतार-साहित्यपरसे ईसाकी ७ वी शताब्दीसे दिग्नागने जिन न्यायसूत्रकार और वास्यायनके प्रत्यक्ष- पहजेका निर्धारित नहीं होता', समन्तभद्रकी उक्त लक्षणका खंडन किया है। उन्होंने भी 'अज्ञान-नाश' को कारिकाका निम्न प्रकारसे अनुसरण किया हैप्रमाणका फल स्वीकार नहीं किया। जहां तक उपलब्ध प्रमाणस्य फलं साक्षादज्ञानविनिवतेनम । जैन-जनेतर साहित्यका परिशीलन किया जाता है केवलस्य सुग्वोपक्षे शेपस्यादानहानधीः ॥ २८॥ उसपरमे यही मानम होता है कि जैन-परंपराके इस तरह अज्ञाननाश' को प्रमाणका फल बतलाना प्रमुख प्राचार्य स्वामी समन्तभद्रने ही सर्वप्रथम एक जैनमान्यता है, जिसके श्राद्यपुरस्कर्ता पाचार्य समन्त'प्रज्ञान-नाश' को प्रमाणका फल कहा है और अपनी प्राप्त भद्र है। अतः इस मान्यताका खण्डन करनेवाले दिग्नाग मीमांसाकी निम्न कारिकाके द्वारा उसे स्पष्टतया घोषित । समन्तभदसे पूर्ववर्ती न होकर उत्तरवती ही सिद्ध होते हैं। किया है-- यही वजह है कि समन्तभद्र के उत्तरवर्ती प्राचार्योंमेसे उन उपेक्षा फल मादाम्य शेपम्यादानहानधीः। की प्राप्तमीमांसा कृतिके समर्थ टीकाकार अकलक देवने जब पूर्वा वाऽज्ञाननाशो वा सर्वस्याम्य स्वगोचरे ॥१०२ समन्तभद्रमतके उक्त खंडनको देखा तो वे अपने पूर्वज यहां कारिकाके पूर्वाधमे प्रमाणका जो फल दिया हुश्रा समन्तभद्रपर किये गये दिग्नागके इस श्राक्रमण एवं प्रहारको सहन न कर सके और इसलिये वे प्राप्तमीमांसा १ "यदा संनिक पस्तदा ज्ञान प्रांमति: यदा ज्ञान तदा हानो की उफ कारिकाकी व्याख्या (अष्टशती) में ही उसका सबल पादानोपेनाबुद्धयः फलम। -न्यायवा० भा० पृ० १७ उत्तर देते हुए लिखते हैं :-- २ "तत्त्वज्ञानान्निश्रेयमम् ।" -वैशेषिकस० १.१३ “मत्यादेः साक्षात्फलं स्वार्थव्यामोहविच्छेदः । ३ मीमासाश्लोकवा० ५६-७३ (अन्य सामने न होनेसे प्रमा तदभावे दर्शनस्यापि संनिकाविशेषात् । क्षणपरिमी० टि. के आधार पर नंबर मात्र दिया गया है)। णामोपलम्भवदविसंवादकत्वासंभवान।" ४ (क) "स्वमावनि: फलं वात्र तद्रपादर्थनिश्चयः । विषयाकार एवात्य प्रमाणं तेन मीयते।" १ क्योकि मिद्धसेनने प्रत्यक्षके लक्षण मे कुमारिल के 'बाध वनित' विशेषणका अोर धर्मकातिके 'अभ्रान्त' पदका -प्रमाणस० का० १० प्रयोग किया है और कुमारिल तथा धर्मकीर्ति दोनो ही (ख) "विषयाधिगनिश्चात्र प्रमाणफलमिप्यते। स्ववित्तिर्वा प्रमाणं तु सारूयं योग्यतापि वा।" ईसाकी ७ वी शताब्दीके विद्वान है। -तत्त्वसं० का १३४४ २ न्यायावतारमे ममन्तभद्र के और भी कितने ही पद-वाक्यो ५ "अशानविनाशका फलरुपम उल्लेख. जिसका वैदिक- का अनुसरण पाया जाता है- 'अामायशमनल्लंघ्य बौद्ध परंपरामे निर्देश नही देखा जाता । ..." महष्टिविरोधकम्' इत्यादि शास्त्र-लक्षण वाला रत्नकरण्ड -प्रमाण भा० पृ० ६८ श्रावकाचारका यो पद्य नी ज्योका त्या नं०६ पर ६ देखो, प्रमाणममुच्चय का० १८, १६, २०, २१, २२, २३ उद्धृत है।
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy