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________________ किरण ५] श्रीसमन्तभद्रभारती के कुछ नमूने १७१ श्रीसुमति-जिन-स्तोत्र अन्वर्थसंश: सुमतिम निस्त्वं स्वयं मतं येन सुयुक्तिनीतम् । यतश्च शेषेषु मतेषु नाति सर्वक्रियाकारकतत्त्वसिद्धिः॥ १ ॥ 'हे सुमति मुनि ! श्रापकी 'सुमति' (प्रेष-सुशोभन-मति) यह मंजा अन्वर्थक है-श्राप यथानाम तथागुण हैंक्योकि एक तो आपने स्वयं ही-बिना किसीके उपदेशके-मुयुक्तिनीत तत्त्वको माना है-उस अनेकान्तात्मक वस्तुतत्त्वको अंगीकार किया है जो अकाट्य युक्तियाके द्वारा प्रणीत और प्रतिापत है-; दूसरे अापके (अनेकान्त) मतसे भिन्न जो शेष एकान्त मत हैं उनमे संपूर्ण क्रियाश्री तथा कर्ता, कर्म, करण श्रादि कारकोके तत्त्वकी सिद्धि-उनके स्वरूपकी उत्पत्ति अथवा शनि-नहीं बनती। (कैसे नहीं बनती, यह बात 'सुयुक्तिनीततत्व' को स्पष्ट करते हुए अगली कारिकायोमें बतलाई गई है)। अनेकमेकं च तदेव तत्त्वं भेदाऽन्वयज्ञानमिदं हि सत्यम् । मृपोपचारोऽन्यतरस्य लोपे नच्छेपलोपोऽपि ततोऽनुपाख्यम् ॥ २॥ 'वह सुयुक्तिनीत वस्तुनत्त्व भेदाऽभेद-जानका विषय है और अनेक तथा एकरूप है-भेदज्ञानकी-पर्यायकी दृष्ठिसे अनेकरूप है तो वही अभेदज्ञानकी-द्रव्यकी दृष्टि से एकरूप है--और यह वस्तुको भेद-अभेदरूपसे ग्रहण करने वाला ज्ञान ही सत्य है-प्रमाण है। जो लोग इनमेमे एकको ही सत्य मानकर दूसरमे उपचारका व्यवहार करते हैं वह मिथ्या है; क्यों कि दोनोमसे एकका अभाव मानने पर दूमरेका भी अभाव हो जाता है कारण कि दोनोका (द्रव्यपर्यायका) परस्पर अविनाभावी सम्बन्ध है। दोनोंका अभाव हो जानेमे वस्तुतत्व अनुपाख्य-नि:स्वभाव हो जाता है और तब उसे न तो एकरूप कह सकते हैं और न अनेकरूप-यह अनिर्वचनीय टहता है, जिससे संपूर्ण व्यवहारका ही लोप होता है। सतः कथंचित्तदसत्वशक्तिः खे नास्ति पुष्पं तरुषु प्रसिद्धम्। सर्वस्वभावच्युतमप्रमाणं स्ववाग्विरुद्धं तव हितोऽन्यत् ॥ ३ ॥ 'जो सत् है-स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावसे विद्यमान है-उसके कथंचित् असत्वशक्ति भी होती है-परद्रव्य-क्षेत्र काल-भावकी अपेक्षा वह असत् है-, जैसे पुष्प वृक्षों पर तो अस्तित्वको लिये हुए प्रसिद्ध है परन्तु श्राकाश पर उसका अस्तित्व नहीं है, अाकाशकी अपेक्षा वह असत्-रूप है-यदि पुष्प वस्तु सर्वथा मत्रूप हो तो अाकाशके भी पुष्प मानना होगा और यदि सर्वथा असत्रूप हो तो वृक्षो पर भी उमका अभाव कहना होगा । परन्तु यह मानना और कहना दोनों ही प्रनीति के विरुद्ध होनेसे टोक नहीं हैं। इस परमे यह फलित होता है कि वस्तुतत्त्व कथंचित् सत्रूप और कथंचित् असता है-स्वद्रव्यादि चतुष्टयकी अपेक्षा जहाँ वह सत्रूप है वहीं पर-द्रव्यादि चतुष्टयकी अपेक्षा अमत्-रूप भी है । किसी भी वस्तुके स्वरूपको प्रतिष्ठा उस वक्त तक नही बन मकती जब तक कि उममेंसे पररूपका निषेध न किया जाय। अाम्रफलको श्रानार, सन्तग या अंगूर क्यों नही कहते ? इमी लिये न कि उसमें श्रानारपन, सन्तरापन तथा अंगूपन नहीं है-~-वह अपनेमे उनके स्वरूपका प्रतिषेधक है । जो अपनेमे पररूपका प्रतिषेधक नही वह स्वरूपका प्रस्थापक भी नहीं हो सकता। इमीस प्रत्येक वस्तुमे अस्तित्व और नास्तित्वके दोनों धर्म होते हैं और वे परस्पर अविनाभावी होते हैं-एक के बिना दूमरेका अस्तित्व बन नही सकता । यदि वस्तुतत्वको सर्वथा स्वभावच्युत माना जाय-उसमे अस्तित्व, नास्तित्व, एकत्य, अनेकत्व आदि धर्मोका सर्वथा अभाव स्वीकार किया जाय-तो वह अप्रमाण टहरता है-उस तत्वका तब कोई व्यवस्थापक नहीं रहता। इसीसे (हे मुमति जिन !) अापकी दृष्टि से अन्य-जीवादि तत्व कथंचित् मत्-असत्रूप अनेकान्तात्मक है इस मतसे भिन्न-दूसरा सत्त्वाद्वैतलक्षण अथवा शून्यतैकान्तस्वभावरूप जो एकान्त तत्त्व है-मत है वह स्ववचनविरुद्ध है
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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