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________________ २७२ अनेकान्त [वर्ष ५ उमकी प्रमाणता बतलानेमे प्रमाण की मत्ता स्वीकार करनेसे उस मनके प्रतिपादकोंके 'मेरी माँ बाँझ' की तरहका स्ववचन विरोध आता है, अर्थात् मत्वा द्वैतवादियोके द्वैतात्ति होकर उनकी अद्वैतता भंग हो जाती है और शून्यतैकान्तवादियोंके प्रमाणका अस्तित्व होकर सर्वशून्यता बनी नहीं रहती-विघट जाती है। और प्रमाणका अस्तित्व स्वीकार न करनेसे स्वपक्षका साधन और परपक्षका दूषण बन नही सकता-वह निराधार टहरता है।' न सर्वथा नित्यमुदेन्यपैति, न च क्रिया-कारकमत्र युक्तम् ।। नैवाऽसतो जन्म सतो न नाशो दीपस्तमः पुदगलभावतोऽस्ति ॥४॥ 'यदि वस्तु सर्वथा-द्रव्य और पर्याय दोनों रूपसे--नित्य हो तो वह उदय-अस्तको प्रात नही हो सकतीउसमें उनराकारके स्वीकाररूप उत्पाद और पूर्याकारके परिहाररूप व्यय नहीं बन सकता । और न उसमे क्रिया-कारककी ही योजना बन मकती हैयह न तो चलने-ठहग्ने जीर्ण होने आदि किसी भी क्रियारूप परिणमन कर सकती है और न कर्ता-कर्मादिरूपसे किमीका कोई कारक ही बन सकती है--उम मदा मर्वथा अटल-अपरिवर्तनीय एकरूप रहना होगा, जो असंभव है। (इसी तरह) जो सर्वथा असत् है उसका कभी जन्म नही दाना और जो मर्वया मत् है उमका कभी नाश नहीं होता । (यदि यह कहा जाय कि विद्यमान दीपकका-दीपप्रकाशका-तो बुभने पर अभाव हो जाता है, फिर यह कैंस कदा जाय कि सत्का नाश नही होता ?' इसका उत्तर यह है कि) दीपक भी बुझने पर सर्वथा नाशको प्राप्त नहीं होता, किन्तु उस समय श्रन्धकाररूप पुद्गल-पर्यायको धारण किये हुए अपना अस्तित्व रखता है-प्रकाश और अन्धकार दोनी पद्गलकी पर्याय हैं, एक पर्याय के अभावम दूसरी पर्यायकी स्थिति बनी रहती है, वस्तुका सर्वथा अभाव नहीं होता। विधिनिषेधश्च कथंचिदियो, विवक्षया मुख्य गुण-व्यवस्था । इति प्रणीतिः सुमतेस्तवेयं मतेः प्रवेकः स्तुवतोऽस्तु नाथ ॥ ५ ॥ -स्वयम्भूस्तोत्र '(वास्तवमें) विधि और निषेध-अस्तित्व और नास्तित्व-दोनों कथंचित् इष्ट हैं-सर्वथा रूपसे मान्य नही। विवक्षासे उनमे मुख्य और गौण की व्यवस्था होती है- उदाहरण के तौरपर द्रव्यदृष्टिम जब नित्यत्व प्रधान होता है तो पर्यायष्टिका विषय अनित्यत्व गौण होता है और पर्यायदृष्टि-मूलक अनित्यत्व जब मुख्य होता है तब द्रव्यदृष्टिका विषय नित्यत्व गौण हो जाता है। इस प्रकारसे हे सुमति जिन ! आपका यह तत्व-प्रणयन है। इस तत्त्वप्रणयनकी और इसके द्वाग श्रापकी स्तुति करने वाले मुझ स्तोता (उपासक) की मनिका उत्कर्ष होवे-उसका पूर्ण विकास होवे । भावार्थ-यहाँ स्वामी समन्तभद्रने सुमतिदेवका उनके मतिप्रवेकको लक्ष्य में रखकर, स्तवन करके यह भावना की है कि उस प्रकारके मनिप्रवेकका-ज्ञानोत्कर्षका-मेरे अात्माम भी आविर्भाव होवे । सो ठीक ही है, जो जैसा बनना चाहता है वह तद्गुणविशिष्टकी उपासना किया करता है, और उपासनामे यह शक्ति है कि वह भव्य उपासकको तद्रप बना देती है; जैसे तेलसे भीगी हुई बत्ती जब दीपककी उपासना करती है-तद्रप होनेके लिये जब पूर्ण तन्मयताके साथ दीपकका श्रालिङ्गन करती है तो वह भिन्न होते हुए भी तद्रप होजाती है-स्वयं वैसी ही दीपशिखा बन जाती है । * इसी भावको श्रीपूज्यपाद श्राचार्यने अपने 'समाधितंत्र'की निम्न कारिकामे व्यक्त किया है भिन्नात्मानमुपास्यात्मा परो भवति तादृशः । वर्तिदीपं यथोपास्य भिन्ना भवति तादृशी ॥१७॥
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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