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श्वे० तत्त्वार्थसूत्र और उसके भाष्यकी जांच
[ सम्पादकीय ]
(गत किरणसे आगे)
सत्त्वार्थशास्त्रको अपने ही वचनके पक्षपातसे मलिन अनुदार मा तथा भाष्यके इन चार नमूनों और उनके विवेचन कुत्तोके समूहोंद्वारा ग्रहीप्यमान-जैसा जान कर-- यह देख
परसे स्पष्ट है कि सूत्र और भाष्य दोनों एक ही कर कि ऐसी कुत्ता-प्रकृतिके विद्वान लोग इसे अपना अथवा प्राचार्यकी कृति नहीं हैं, और इसलिये श्चे० भाग्यको अपने सम्प्रदायका बनाने वाले हैं-पहले ही इस शास्त्रकी 'स्वोपज्ञ' नहीं कहा जा सकता।
मूल-चूल' सहित रक्षा की है-इसे ज्योंका त्यों श्वेताम्रयहाँपर मैं इतना और भी बतलादेना चाहता हूँ कि सम्प्रदायके उमास्वातिकी कृतिरूपमे ही कायम रक्खा है-वह तत्त्वार्थसूत्रपर श्वेताम्बरोंका एक पुराना टिप्पण है, जिस (अज्ञातनामा) भाष्यकार चिरंजीव होवे-चिरकाल तक जय का परिचय अनेकान्तके वीरशासनाङ्क (वर्ष ३ कि. १ पृ. को प्राप्त होवे-ऐसा हम टिप्पणकार-जैसे लेखकोंका उस १२१-१२८) में प्रकाशित हो चुका है। इस टिप्पणके निर्मलग्रन्थके रक्षक तथा प्राचीन-वचनोंकी चोरीमें आसकर्ता रत्नसिंहमूरि बहुत ही कट्टर साम्प्रदायिक थे और उन मर्थके प्रति आशीर्वाद है।' के सामने भाष्य ही नही किन्तु सिमेनकी भाष्यानुसारिणी यहाँ भाष्यकारका नाम न देकर उसके लिये 'सकश्चित्' टीका भी थी, जिन दोनोंका टिप्पणमें उपयोग किया गया (वह कोई) शब्दोंका प्रयोग किया है. जब कि मूल सूग्रकार है, परन्तु यह सब कुछ होते हुए भी उन्होंने भाष्यको का नाम 'उमास्वाति' कई स्थानोपर स्पष्ट रूपसे दिया है। स्वोपज्ञ' नही बतलाया । टिप्पणके अन्तमे 'दुर्वादा
इससे सात ध्वनित होता है कि टिप्पणकारको भाष्यकारका पहार' रूपसे जो सात पद्य दिये हैं उनमेसे प्रथम पद्य और
नाम मालूम नहीं था और वह उसे मूल सूत्रकारसे भिन्न उसके टिप्पणमें, साम्प्रदायिक-कट्टरताका कुछ प्रदर्शन करते
समझता था। भाष्यकारका 'निर्मलग्रन्थरक्षकाय' विशेषण हुए, उन्होंने भाष्यकारका जिन शब्दोंमें स्मरण किया है वे
के साथ 'प्राग्वचन-चारिकायामशक्याय' विशेषण भी निम्न प्रकार हैं:
इसी बातको सचित करता है। इसके 'प्राग्वचन' का वाच्य "प्रागेवैतदक्षिण-भपण-गणादास्यमानमिति मत्वा ।
तत्त्वार्थसत्र जान पड़ता है-जिसे प्रथम विशेषणमें 'निर्मलत्रातं समूल-चूलं स भाष्यकारश्चिरं जीयात ॥१॥
ग्रंथ' कहा गया है, भाष्यकारने उसे चुराकर अपना नहीं ___टिप्पण-"दक्षिणे सग्लोदागवति हेमः अद
बनाया-वह अपनी मन.परिणतिके कारण ऐसा करनेके क्षिणा असरलाः स्ववचनस्यैव पक्षपातलिना इति
लिये असमर्थ था-यही श्राशय यहाँ व्यक किया गया है। यावत्त एव भषणाः कुर्कुरास्तेषां गणरादास्यमानं पहि
अन्यथा, उमास्वातिके लिये इस विशेषणकी कोई जरूरत प्यमानं स्वायत्तीकरिप्यमानमिति यावत्तथाभूतमित
नहीं थी-यह उनके लिये किसी तरह भी ठीक नहीं तत्वार्थशास्त्र प्रागेवं पूर्वमेव मत्वा ज्ञात्वा येति शेपः।
बैठता । साथ ही, 'अपने ही वचनके पक्षपातमे मलिन सहमूलचूलाभ्यामिति समूलचूलं जातं रक्षितं स कश्चिद्
धनुदार कुत्तोंके समूहोंद्वारा ग्रहीप्यमान-जैसा जानकर' भाष्यकारो भाष्यकर्ता चिरं दीर्घ जीयाञ्जय गम्यादि- . त्याशीर्वचोऽस्माकं लेखकानां निर्मलग्रन्थरक्षकाय १ 'चल' का अभिप्राय श्रादि अन्तकी कारिकायोमे जान पड़ता प्राग्वचनं चौरिकायामशक्यायेति ।"
है, जिन्हें माथमे लेकर और मूलमूत्रका अंग मानकर ही इन शब्दोंका भावार्थ यह है कि-'जिसने इस टिपण लिखा गया है।