SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 412
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ *->>192245 वर्ष ५ किरा विश्व तत्त्व-प्रकाशक २२ * ॐ अर्हम् * কা नीतिविरोधध्वंसी लोकव्यवहारवर्तकः सम्यक् । परमागमस्य बीजं भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः ॥ वस्तुतत्त्व-संघक वीर सेवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम) सरसावा जिला सहारनपुर पौष, वीरनिर्वाण सं० २४६६, विक्रम सं० १६६६ समन्तभद्र-भारती के कुछ नमूने [ १३ ] श्रीविमल- जिन स्तोत्र * जनवर्ग सन १६४३ ई० य एव नित्यक्षणिकादयो नया मिथोऽनपेक्षाः स्वपरप्रणाशिनः । तएव तवं विमलस्य ते मुनेः परस्परेक्षाः स्वपरोपकारिणः ॥ ६१ ॥ "तोकी अपेक्षा) जो नित्य-क्षणिकादिक नय हैं वे परस्पर में अनपेक्ष (स्वतंत्र) होने से - एक दूसरे की अपेक्षा नरखकर स्वतंत्रभाव से सर्वथा नित्य-क्षणिकादिरूप वस्तुतत्वका कथन करने के कारण स्वपर प्रगाशी है निज और पर दोनोका नाश करने वाले स्व-पर वैरी हैं, और इसलिए दुर्नय हैं। वे ही नय, हे प्रत्यक्षज्ञानी विमल जिन ! आपके मत में, परस्परेक्ष (परम्परतंत्र) होने से - एक दूसरे अपेक्षा रखने से -- स्व-पर- उपकारी हैं - अपना और परका दोनांका भला करने वाले- दोनाका अस्तित्व बनाये रखने वाले स्व-पर-मित्र है, और इसलिये तत्त्वरूपसम्यक नय है ।' यथैकशः कारकमर्थसिद्धये समीक्ष्य शेषं स्वसहायकारकम् । तथैव सामान्य विशेषमातृका नयास्तवेष्टा गुणमुख्यकल्पतः ॥६२॥ 'जिस प्रकार एक एक कारक - उपदानकारण या निमित्तकारण अथवा कर्ताद कारकाम से प्रत्येक शेष अन्यको अपना सहायकरूप कारक अपेक्षित करके अर्थी सिद्धिके लिये समर्थ होता है, उसी प्रकार
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy