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________________ २८२ अनेकान्त वर्ष (हे विमलजिन !) आपके मतमें सामान्य और विशेषसे उत्पन्न होने वाले अथवा सामान्य और विशेषको विषय करने वाले (द्रव्यापिक, पर्याथिक आदि रूप) जो नय हैं वे मुख्य और गौण की कल्पनाम इट(आभात) हैं।-प्रयाजनक वश सामान्यको मुख्यरूपसे कल्पना (विवक्षा) हानेपर विशेपी गौणरूपस और विशेषकी मुख्यरूस कल्पना होनेपर सामान्यकी गौणरूपमे वल ना होती है, एक दूसरेकी अपेक्षाको कई छोड़ता नहीं. और इस तरह सभी नय सापेक्ष हं कर श्रने अर्थको मिद्धिरूप विवाक्षत अर्थक परिजानम ममथं होते हैं। परस्परेशान्वयभेदलिङ्गतः प्रसिद्धसामान्यविशेषयोस्तव । समग्रताऽस्ति स्वपरावभासकं यथा प्रमाण भुवि बुद्धिलक्षणम् ॥६॥ 'परस्परमें एक दूसरेकी अपेक्षाको लिये हुए जो अन्वय (अभेद) और भेद (व्यतिरेक) का ज्ञान है उससे प्रसिद्ध होने वाले सामान्य और विशेषकी ( हे विमल जिन ! ) श्रापकै मतमें उसी तरह समग्रता ( पूर्णता) है जिस तरह कि भूतलपर बुद्धि(ज्ञान, लक्षण प्रमाण म्व-पर-प्रकाशक-रूपमें समय (पूरा:-मब.लादेशी) हैअर्थात् जिम प्रकार मम्यग्ज्ञान-लक्षण-प्रमाण लोकम स्व-प्रकाशकत्व और प-प्रकाशक त्वरूप दो घमीम युक्त हुश्रा अने विषयमे पूर्ण होता है और उसके ये दोनों धर्म परम्परम विरुद्ध न ह कर मापन होते हैं--स्व-प्रयाशयत्व के बिना पर-प्रकाशकल और पर-प्रकाशकत्व के बिना स्व-प्रकाशकत्व बनता ही नहीं-उसी प्रकार एक वस्तुम विशेषग-विशे' यभाव मे प्रवर्तमान सामान्य और विशेष ये दो धर्म भी परस्पर में विरोध नहीं रखते किन्तु अविरोध रूपमे सापेक्ष होत हैसामान्य के विना विशेष और विशेषके बिना मामान्य अपूर्ण है अथवा यो कहिये कि बनता ही नहीं--,और मनिये दोनोंके मलसे ही वस्तुमे पूर्णता पाता है।' विशेष्य-वाच्यस्य विशेषणं वचो यतो विशेष्यं विनियम्यते च यत् । तयोश्च सामान्यमतिप्रसज्यते विवक्षितास्स्यादिति तेऽन्यवर्जनम् ॥६४॥ 'वाच्यभूत विशेष्यका-मामान्य अथवा विशेषका-वह वचन जिसमें विशेष्यको नियमित किया जाता है-विशेषण की नियतरूपताके माथ श्रावधारा किया जाता है- विशेषण' कहलाता है और जिसे नियमित किया जाता है वह 'विशेष्य' है। विशेषण और विशेष्य दोनों के मामान्यम्पताका जो अति रग अाता है वह (ह विमलजिन ! ) आपके मतम नही बनना; क्योकि विवाक्षत विशेषण-विशेष्यस अन्य अविवक्षित विशेषण-विशेष्यका 'स्यात' शब्दस वर्जन (पारहार) होजाता हे.-'म्यात्' शब्द की सर्वत्र प्रतिधा रहने से श्रावक्षित विशेषण-विशेग्यका ग्रहण नही दाना, और इमलिये अतिप्रमग दोष नहीं पाता। नयास्तव स्यास्पदसत्यलाञ्छिता रसोपषिद्धा इव लोहधातवः । भवन्त्यभिप्रेतगुणा यतस्ततो भवन्तमायोः प्रणता हितैषिणः ॥६॥ (हे विमलजिन !) आपके मतमे जो (नित्य-क्षीणकादिनय हैं व मब स्यात्पद रूपी सत्यस चिहित हैंकोई भी नय स्यात्' शब्दके श्राशय (कथाचत के भाव में शून्य नहीं है, भले ही 'स्यात्' शब्द साथ में लगा हुअा हो या न हो-और रमोपविद्ध लोह धातुओके ममान-पारम अनुचित हुई लोद-ताम्रा द धानुग्रीकी तरह-अभिमत फलको फलते हैं-यथा स्थित वस्तुतन्यके प्रम्पगमे ममर्थ होकर मन्मार्गपर ले जाते हैं। इमीम अपना हित चाहन वाले आर्यजनोने आपको प्रणाम किया है-उत्तम पम्प मटा ई! श्राप मार ने नत-गतम्नक हुए है ।'
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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