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________________ किरण १-२] मरुदेवी स्वप्नावली स्तृप्तोन्नतश्चतुरसमसुखेनभोगैः'। अनुपम स्वयंबर विधिमे मुक्ति वधूकी वर मालाको प्रहण क्रोधादिसिन्धुरहरिबजिताऽपवर्ग करेगा-तपस्याके द्वारा मोतको प्राप्त होगा,-और इस नाथो नताङ्गि ! तपसाथ विताप वर्गम ॥६॥ प्रकार वह विभु-सारे संसारका स्वामी-होगा' 'हे नताङ्गि! सिह देखनेका फल यह है कि तुम्हारे जो दृष्टेन शीतकिरणन सुधीरतापः पुत्र होगा वह क्रोधादि हस्तिो नष्ट करनेके लिए सिह साधुर्यशोधवलितो व्रतधीरतापः । के समान होगा, सुन्दर गृहसुखके समय-गृहस्थ अवस्था आहादयिष्यति मनांसि महादयानां' मे-अनेक विद्याधरों अथवा देवोंके साथ विविध भोगजन्य धर्मामृतव्रतवतां समहोदयानाम ।।६।। सुखसे अत्यन्त तृप्त होगा । पुनः तपके द्वारा वैषयिक मुखो 'चन्द्रमाके देखनेसे वह पुत्र सुधी-समीचीन बुद्धिसे से विरक्त होकर-तापवर्गसे-मानसिक वाचनिक और कायिक युक्त-होगा, संतापरहित होगा, यशसे उज्वल होगा, व्रतसंतापसे रहित अपवर्गको-मोक्ष स्थानको प्राप्त होगा और राहत मनुष्योंको संताप पहुंचाने वाला होगा, अथवा बोंमें इस प्रकार वह जगत्का स्वामी होगा'॥६॥ धीरताको प्राप्त होगा तथा धर्मामृतके द्वारा महान् अभ्युदय दृष्टन माधववधूवररूपकरण से युक्त व्रतवान् महापुरुषों के मनको हषित करेगा' ॥1॥ भोगोपभोग कृतसौख्यनिरूपण दृष्टन चण्डकिरणन विभासमानः१० लक्ष्मी प्रदा(धा)स्यति जिनो भवतीति भिन्नं पापान्धकारदलनेन विभासमानः। चण्डि ! क्षितारिरमणो भवतीति भिन्नम ॥७॥ भव्याब्जबोधनपटुर्विधुराजितो मे 'हे चण्डि ! भोग-उपभोगजनित सुखोंका निरूपण मोदं तनिष्यति मुनिविधगजितो मे ।।१०।। करनेवाले लक्ष्मी दर्शम-स्वमसे यह प्रक्ट है कि वह पुत्र __ हे चन्दतुल्य कीर्ति अथवा कान्तिसे शोभित मरदेवि ! पहले शत्र-राजाभावो नष्कर विजय लक्ष्मीको धारण करेगा सूर्यदर्शनका फल यह है कि वह पुत्र अपनी शारीरिक विभा और उसके अनन्तर जिन होकर-धाति कर्मशऋत्रोंको नष्टकर से असमान अनुपम (अथवा सूर्यके समान) होगा, पापरूप परमाईन्त्य लक्ष्मीको धारण करेगा । अथवा अन्य जीवोंको अन्धकारको नाश करके शोभायमान होगा, भव्यरूप कमलों प्रदान करेगा।' के हर्षित-विकासित करने में समर्थ होगा, चन्द्रमा तथा दृष्टेन दामयुगलेन विनाऽशनानि नारायणके समान शोभित होगा, अथवा विधुर-वैकल्प वेचैनी भादिसे अजित होगा. मुनि होगा-जितेन्द्रिय कृत्वा तपांसि बहुदुःखविनाशनानि । माला स्वयंवर विधौ विगतोपमाने५ होगा-और इस तरह मेरे हर्षको विस्तृत करेगा।' ॥१०॥ मुक्तेग्रहीष्यति विभुर्विगतोपमाने ! ७ सुधी: + अतापः इति पदच्छेदः । 'हे विगतोपमाने ।-उपमारहित प्रिये ! मालाओंका ८ न व्रतधीरा इत्यव्रतधीरास्तान् तापयतीत्यव्रतधीरतापः । युगल देखनेसे प्रकट है कि वह पुत्र भोजनका त्यागकर, अथवा-अाग्नम श्रार: प्रातिरित्यर्थः, नंतषु धारताया अापो यस्य म:। अस्मिन् पक्षे व्रतधीरनाप: इति पदच्छेदः। अनेक दुःखोंका नाश करनेवाले उपवासादि तप करके. ---.-.-६ महोदयः महवनमानानाम् । १ नभम-गगने गच्छन्तीति नभोगास्तैः। १० विभया-कान्त्या अममान: अमदृश अनुपम इत्यर्थः । २ विगतस्तापवर्गों यस्मात्म तम् । ११ विभासते-इति विभाममान: शोभमान इत्यर्थः । ३ अशनानि भोजनानि विना-याहारं परित्यज्येत्यर्थः। १२ विधुवत् राजित:-विधुराजितः, चद्रतुल्यशोभितः अथवा ४ वहुदु:ग्वाना विनाशनानि-विघातकानि । विधुरै: वैकल्पादिभिर्दुःखैरजितोऽपरिभृतः । ५ विगतम्-उग्मान-सादृश्यं यस्य तस्मिन् 'स्वयंवर विधौ' १३ विधुवच्चन्द्रवत् राजिता शोभिता-उमा-कीर्ति कान्तिर्वा इत्यस्य विशेषणम्। यस्या: मा तत्मम्बुद्धौ ‘उमा गौर्यामतस्या च हरिद्रा कान्ति ६ विगतम्-उपमानं यस्यास्तत्मबुद्धौ। कीर्तिषु' इति विश्वलोचनः ।
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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