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________________ अनेकान्त [ वर्ष ५ दृष्टेन मीनयुग्लेन सुकेवलेन' हारोपशोभितकुचे ! सुमनो हितस्य'. पूर्व श्रिया जगति राजसु केवलेन । तृष्णां हनिष्यति पतिः सुमनोहितस्य ॥१३॥ कीडिष्यति प्रियतमे ! नृपराजकामः 'हारमे सुशोभित स्तनों तथा अत्यन्त सुन्दर हृदयको सिद्धया पुनर्जिनवरोऽनृपराजकामः। ॥ ११॥ धारण करनेवाली हे मरुदेवि ! कमल युक्त सरोवरके देखने 'हे प्रियतमे ! उत्तम जलमे संचरण करते हुए मीनोंका से प्रकट है कि वह पुत्र कमलाके-धनधान्यादिविभूति युगल देखनेसे प्रकट होता है कि वह पुत्र पहले तो नृपराज- अथवा अनन्तचतुष्टयरूप लक्ष्मीके-करने वाले धर्मोपदेश राजराजेश्वर बननेका इच्छुक होता हुआ मुख्य राजलक्ष्मी के विधान द्वारा (हितस्य) भक्तोंकी अथवा गगद्वेषसे रहित बननेकी इच्छामे रहित हो जिनेन्द्र होकर केवलज्ञानलक्ष्मी होने के कारण (अहितस्य) अभक्तोंकी भी तृष्णाकोद्वारा जगन्के राजाओंमें क्रीडा करेगा और बादमे नृपराज भोगाकांक्षाको [तालाब पक्षमे प्यासको नष्ट करेगा और वह तथा सिद्धिलक्ष्मी मुक्तिश्रीके साथ क्रीडा करेगा। ॥१॥ विद्वानों अथवा देवों के हितकर पदार्थों में (पति) मुख्य होगा दृष्टेन कुम्भयुगलेन कुलोपकारे ! [तालाब भी पुष्पों के हितैषियोमें-उन्हें जलसिंचन श्रादि हैमेन पल्लवमुग्वेन कुलोपकारे ! के द्वारा हरा भरा रखने वालोंमे मुख्य होता है। प्रारब्धमञ्जनविधिः सुमनोरमाभिः" (अथवा वह पुत्र जगत्का स्वामी होकर हित और सेव्यो भविष्यति गुरुः सुमनोरमाभिः ।।१२|| अहितकी--भक्तों और अभक्तोंकी तृष्णाको दूर करेगा (हि) 'कुलका उपकार करनेवाली और कुत्सित वृत्तियोंका क्योकि (तस्य) उसका (सुमनः) हृदय अन्यन्त श्रेष्ठ होगा लोप करनेव ली हे मरुदेवि ! पल्लवों-किसलयोंसे युक्त राग-द्वेषमे रहित होगा।) ॥ १३ ॥ मुखवाले दो सुवर्ण घटोंके देखनेसे यह जाहिर होता है दृष्टेन तोयनिधिना प्रमदाकुलेन'' कि उस पुत्रकी प्रारंभिक स्नानविधि-जन्माभिषेक सम्बन्धी रत्नाकरावधिमिमां प्रमदाकुलेन । विधि-देवताओं के द्वारा सम्पन्न होगी, वह विद्वानों अथवा भूमि विमुच्य तपमेष्यति साधुनाथो देवोंको आनन्द देनेवाली देवियों के द्वारा मेवनीय होगा यां शुभ्रकां न मुदमेष्यति माधुनाथो ॥१४|| और [जगत्त्रयका] गुरु होगा' । ॥ १२ ॥ 'हे देवि ! समुद्र देग्बनेका फल यह है कि वह (समुद्र दृष्टेन देवि ! सरमा कमलाकरंग' के समान गाम्भीर्य गुणसे) सापुरुषोका नाथ होगा । तथा धर्मापदेशविधिना कमलाकरेण । हर्ष अथवा प्रकृष्ट मदमे युक्त स्त्रीसमूहके साथ जिस उज्ज्वल १ सुके-शोभन जले बलते संचरति-इति मुकेवलम् बाहुलका- ममदान्त पृथिवीको छोडकर तपके अर्थ (वनको) जावेगा सप्तम्या अलुक । सुध जलसंचारित्यथ: 'मनयुगलेन' इत्य- वह पथिवी (श्रथो) उनके स्वामित्वके बाद फिर हर्षको प्राप्त स्य विशेषणम् । न हो सकेगी।' ॥१४॥ २ केवलेन-मुख्येन मामान्ये नमकात्वम् । केवलेन-कंवलज्ञानेन इति च। १० हितस्य अहितस्य वा पदच्छेदः । मगंवर पक्षे दिनस्य ३ कुलस्य-उपकारो यस्यास्तत्मम्बुद्वी। भगेवरे धृतम्येत्यर्थः । 'दधाने 'ि इत्यनेनः निष्ठायारत: ४ कुत्मित जनलोपकारिणि ! धा धाता: स्थाने दृयादेशः। ५ सुमनसो रमयन्तीति सुमनोरमास्ताभिः। सुमनसा देवा ११ सुमनोभ्योहितस्य । अथवा 'सुमन:+द+तस्य' इति पदविद्वामश्च । त्रयम । दि यतः, तस्य पुत्रस्य सुमनः सुष्टु हृदयं ६ सुमनमा रमा स्ताभि:-देवागनाभिः । भविष्यतीतिशेषः । ७ कमलाना पद्मानाम्-अाकरस्तन मर मेत्यस्य विशेषणम् । १२ प्रमदेन-हर्षेण-प्रकृष्टमदेन बा अाकुलम्नेन । ८ कमलाया: करस्तेन धर्मोपदेशविधिनेत्यस्य विशेषणम् । १३ स्त्रीकुलेन मह ।। ६ सुषु मनो यस्यास्तत्सम्बुद्धौ देवीत्यस्य विशेषणम्। १४ सा+अधुना+अथो, इति पदच्छेदः ।
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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