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________________ किरण१-२] मरुदेवी-स्वप्नावली दृष्टेन सिहविधृतेन सदासनेन' ते सत्पदं२ सुरनृणामरुणाधराणां 3 धाम्नान्धकारविवहस्य सदासनेन । स्वामी विशालकरुण ! करुणाधराणाम् ॥१॥ साम्राज्य मस्तवृजनो वसुधाऽवनेन' है विशाल दयासे युक्त देवि ! अत्यन्त शोभायमान कान्ते ! करिष्यति जिनोऽवसुधावनेन ॥२शा नागेन्द्र भवनके देखनेसे प्रकट होता है कि तुम्हारा वह पुत्र 'हे कान्ते ! अपने तेज-कान्तिके द्वारा सदा अन्धकारके देवोचित सातिशय विनयके साथ नागेन्द्रोंके द्वारा स्तुत समूहको नष्ट करनेवाले सुन्दर सिंहासनके देखनेसे जाहिर होगा-नागेन्द्र नम्रतापूर्वक उसकी स्तुति करेंगे। वह उत्तम होता है कि वह पुत्र पहले निष्पाप होकर पृथिवीरक्षाके उत्तम वस्तुओंका स्थान होगा तथा लाल लाल ओठोंसे द्वारा साम्राज्यको-उत्तम राज्यको करेगा और बादमें निष्कलङ्क युक्त और दयाको धारण करने वाले सुर एवं मनुष्योंका जिनेन्द्र होकर प्रज्ञानान्धकार को नष्ट करनेवाले ज्ञानरूप स्वामी होगा' ॥१७॥ तेजसे पृथिवीरक्षाके विना ही अथवा पृथिवी और बनके दृष्टेन रत्ननिचयेन सुखायमानो'५ विना ही-मुक्ति साम्राज्यको करेगा।' ॥१५॥ रत्नत्रयेण कलकण्ठि ! सु-खायमानः। दृष्टेन देवसदनेन विहाय५ सारं कृत्वा विरंस्यनि मनश्च्युत-चाप-रागं. स्वर्ग ममेन्यति नयेन विहायसाऽरम । मोक्षं क्षमाधरणि ! यास्यति चाऽपरागम११८॥ पातु क्षिति क्षितिपतिः कर-वाल भातः हे मधुर स्वरसे युक्त तथा क्षमाकी आधारभूत देवि ! चश्चच्चकोरनयने ! करवालभातः ॥१६॥ रत्नगशिके देखने से प्रकट है कि वह पुत्र सम्यग्दर्शन 'चकोर जैसे नयनांसे सुशोभित हे मरदेवि ! देवविमान सम्यग्ज्ञान और सम्यश्चारित्ररूप रनायसे सुखको प्राप्त के देखनेसे प्रकट होता है कि वह पुत्र नीतिपूर्वक पृथिवी होगा तथा अपने मनको धनुषकी प्रीतिसे रहित करकेका पालन करनेके लिये श्रेष्ठ स्वर्गको छोड़कर शीघ्र ही दयालु बनाकर- (निप्परिग्रह होनेके कारण) आकाशके समान भाकाश मार्गसे भावेगा । वह पृथ्वीका अधिपति होगा आचरण करता हुआ विरक्त होगा-मुनिव्रत धारण करेगा, तथा सुन्दर हस्त तथा बालोये शोभित होगा और पृथिवीकी अन्तमें रागसे (रागद्वेषसे) रहित होकर मोक्षको प्राप्त होगा। रक्षा करवालकी-तलवारकी दीप्तिमे करेगा' ॥१६॥ दृष्टेन धीमति ! विधूमधनंजयेन' दृष्टेन नागनिलयेन सुरोचितेन'. दत्त्वा स्वयं स्वतनुजाय धनंजयेन। नागस्तुतोऽतिविनयेन सुरोचितेन" धर्माधिपः सकलसोमसमाननाय २२ १ मच्चतत्यामवं च तेन । १२ पद व्यवांस तत्राग स्थान नमाडिवस्तुषु' इत्यमरः। २ सदा+असनेन-दनि पदच्छेदः। १३ अरुणो रक्नोऽधरी येषां तेषाम् । ३ वसुधाया अपनं रक्षणं तेन । १४ धरतीनिधरा: करुणायाधरास्तेषा कृणधारकाणामित्यर्थः। ४ न वसुधाया अपनं अवसुधावनं तेन अथवा वसुधा च ननं १५ सुखायतइ। शिवा मानना १५ सुखायतेइ ति सुग्वायमानः सुग्वयुक्तः। च-अनया: ममाहार: वसुधावन-नद न भवति-तन। १६ सुष्टु धूलिमेघादिदितत्त्वेन शोभनं खमिव गगनामवा५ त्यक्त्या ६ श्रेष्ठ । चग्नीत सुग्वायत इति सुग्वायमानः । • विहायमा+अरम् इति पदच्छेदः, विहायमा-गगनेन अरम् १७ श्च्युतस्त्यवतः चापाद्धनुषागगो यस्य सः । शीघ्रम्। १८ च + अपरागम् इति पदच्छेदः, अपगतो रागो यस्मिन् ८ करो च वालाश्च ते भातः शोभितः । ___म तं, मोक्ष मिल्यस्य विशेषणम् । ६ करवालस्यमा करवालभाः तस्याः पञ्चम्यास्तमिल । १६ धनंजयेन-अग्निना। १० सु-अत्यन्तं रोचितः शोभितस्तेन । २० धन-वित्तं । २. जयेन-विजयेन् सह । ११ सुराणा देवानामुचिती योग्यस्तेन । २२ सयल-सोमसमं-पूर्णचन्द्रसदृशम् श्राननं यस्य स तस्मै
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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