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________________ २२ अनेकान्त [वर्ष ५ ध्यानेन धत्यति रजांसि समाननाय' ॥१॥ इस प्रकार, नेत्रोंको आनन्द देनेवाली और बिम्बफल 'हे बुद्धिमति देवि ! निधूम धनंजय-अग्निके-देखने के समान श्रोटोंसे युक्त वह चतुरनाभिराजकीपत्नी-मरुदेवी, से प्रकट है कि वह पूर्णचन्द्र तुल्य मुखवाले सुबोध क्त दुर्जन मनुष्योंके विषय में अलस और सुखकी लालसासे अपने सुयोग्य पुत्रको विजयके साथ धन देकर-निष्परिग्रह युक्त बुद्धिमान् पतिके द्वारा कहे हुए स्वमॉक फलको जान होकर-धर्मका अधिपति बनेगा और ध्यानके द्वाग कर विशुद्ध हरु ज्ञानावणादिरूप पापोंको दुष्कर्मोको जलावेगा।' ॥१६॥ यः पूजितो जगति राजसभाजनेन' इत्थं फलं निगदितं सुखलालसेन श्रीदेवनन्दिमुनिदेव सभाजनेन । पत्या प्रबुध्य सुधिया सुखलालसेन । स्वप्नावली प्रपठतो मम तापहार' शुद्ध प्रमोदमगमन्नयननाभिरामा माक्षं करोतु स जिनो ममतापहारम' ॥२१॥ विम्बाधरा सकलभूपतिनाभिरामा" ॥२०॥ 'जो जगतमें राजसभागत जनोंके द्वारा तथा श्रीदेवनन्दि १ मननमेव माननं बोधः तेन सहवर्तमानस्तस्मै । मुनिके सभाजन-सस्कारके द्वारा अथवा देवसभाके लोकों २ सातिशया: खला: सुखलास्तषु अलसस्तेन दुर्जन द्वारा पूजित हैं वे जिनेन्द्रदेव (इस) स्वप्नावलीको पढ़ने ___ समर्कशून्येनेत्यर्थः। वाले मुम देवनन्दिके उस मोक्षकी सिद्धि करें जो कि तापको ३ सुखे शर्मणि लालसा वाञ्छा यस्य स तेन् । हरनेवाला और ममताभावको दूर करने वाला है।' ॥२१॥ ४ नेत्रप्रिया-मनोहरेत्यर्थः। ६ गमसभा गतपुरुषः। ५ कलाभिः सह वर्तमान: सकल: सचासौ भूपतिश्चेति . सभाजनं सत्करणम् । सकलभूपतिः, सकलभूरतिश्चासौनाभिश्चति सकलभूपति- ८ मम + तापहारम् इनि पदच्छेदः । नाभिस्तस्यरामा वनिता मरुदेवीत्यर्थः । ६ ममताम् अाहरनीति ममतापदारस्तं ममत्वनिवारकम् । प्रकाश-स्तम्भ श्रीमान बा० भैयालालजी सराफ बी० ए०, एल-एल० बी एडवोकेट सागरने 'अनेकान्त' को 'प्रकाश स्तम्भ' बतलाते हुए अपने जो हृदयोद्गगार प्रकट किये हैं वे इस प्रकार हैं: "अनेकान्तका स्थान चलती फिरती इच्छाओका पूरक भले न हो, पर जैन जातिके अमरत्व का इस युगमें वह 'प्रकाशस्तम्भ' है । ईश्वर जैन जातिको अपने उद्धारके लिये उस ओर मुड़नेकी शक्ति दे, कि विचार गहनताको भेदकर वह उसे अपने जीवनका अंश बना मके और इस देशकी वसने वाली अजैन किन्तु बहुत शो में समान म्स्कृति रसने वाली बहुसंख्यक जातिको मुक्त हस्त से वितीर्ण कर सके, जा आजके राष्ट्रनिर्माणमें भी अपना खास स्थान रख सके। जैन जातिको ही नहीं पर उसके साहित्य तथा ज्ञानके द्वारा वृहत हिन्द जातिके उत्थान तथा उत्कर्षको इस छोटेसे पत्र के हर पृष्ठ में वही जागृत तपस्या लक्षित हो रही है जिसके बगैर कोई राष्ट्र शास्वतिक कीर्ति पथका पथिक बन नहीं सकता। हो नहीं सकता कि इस युगमें जैनसमाज इस जीवन-ज्योतिको स्थायित्व प्राप्त न करावे। जनसमाज परिग्रह-संन्यासके महत्वको बहुत कुछ समझने लगा है इस ओरसे विचारोंमें शुभ-दिक्-परिवर्तन मालूम हो जाता है। साहू शांतिप्रसाद तथा दानवीर सेठ हीरालाल आदि जैसे धनिक जिस जातिके ज्ञानध्वजको अपने हाथमें थामलें उसके उद्धारकी चिन्ता कैसी ?"
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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