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________________ २०८ अनेकान्त [व: ५ पाठन करने वालोंकी संख्या दिनों-दिन बढ़ती जा रही है कर उसे किसी ऐसे केन्द्र-स्थानमे स्थापित करनेकी बायोतब हमारा यह.मी एक कर्तव्य हो जाता है कि उनकी. जना कर जहाँसे निशक्ति एक होकर बडे दायरेमें बड़ा काम शुद्धा शुद्धिक विषयमें समाजको परित्याग कराया जाय, और कर सके, तो मैं समझता हूँ-इससे कम खर्च में ज्यादा प्रेरणा की जाय कि अमुक-अमुक ग्रन्थोंमें अमुक-अमुक लाम हो सकता है। प्राशा है इस बातपर भवनके स्थायी अशुद्धियों हैं, जिन्हें हर एक पाठक सुधार कर पढ़ें। दूसरे अध्यक्ष महोदय और प्रबन्ध-समितिके सदस्यगण विचार इस तरह मुद्रित ग्रन्थोको प्रामाणिकताका भी पता लगता करेंगे। मुझे बड़ी खुशी होगी, अगर आप इस विचारको रहेगा। इसके लिये यह जरूरी है कि मरस्वती-भवनोंके किसी दिन कार्य-रूपमै परिणत करनेकी ठान लें। पुस्तकाध्यक्ष निरन्तर इन सब बातोंकी देख-भाल करते रहें। इस दिशामें ग्रन्थागारों के ग्रन्थाध्यक्षोंका भी बहुत-कुछ तीसरा काम-यह है कि हिन्दी अंग्रेजी श्रादि सार्व- कर्तव्य है। साधारणत: पुस्तकालय या ग्रन्थालय यही जनिक पत्र-पत्रिकाओं में जैनधर्म, जैनसमाज और हमारे कहते पाये जाते हैं कि हमारे पास ग्रन्थ-सूची है, उठाकर पुराण-पुरुषोंके सम्बन्धमैं जो भाये-दिन कुछ-न-कुछ ऊटपटांग स्वयं देख लो और अपने कामकी चीज हूँढ ली।' मगर बातें छप जाया करती हैं, सरस्वती-भवनकी तरफसे उनका हम देखेंगे कि इस तरहकी मनोवृत्ति में भामंत्रण यात्रुलावा उचित-रीत्या निराकरण हुश्रा करे। नहीं है, पाठकके मनको अपने नज़दीक खीचनेकी थान्तरिक चौथा काम-यह होना चाहिये कि ऐसे अजैन विद्वान् भावना नही है, और साथ ही ग्रन्थ-सूचीमें भी ऐसा कोई जो जैनधर्मके सम्बन्धमें कुछ जानकारी हासिल करना स्पष्ट परिचय नही जिससे आकृष्ट होकर लोग स्वयं उसके चाहते हों उन्हें भवनोंकी तरफसे ज्ञानमामग्री दी जाय, और पास पहुंच जाय । जिस ग्रन्थागारमे उसकी प्राभ्यन्तरिक साथ ही अगर वे विद्वान् लेखक या सम्पादक हो तो हर विभूतिका परिचय और परिचयमे पाठकके चितको खीचने तरहसे उन्हें प्रोत्साहन देकर उनसे जैनधर्मके सम्बन्धमे की प्रान्तरिक भावना नहीं है, और साथ है। ग्रन्थ-सूची में लेखादि लिखाये और प्रकाशित किये जायें। इस विषयमें भी ऐसा कोई स्पष्ट परिचय नहीं जिससे धाकृष्ट होकर हमें बौद्धोंकी ओर दृष्टि डालनी चाहिए, जिनके प्रचारका लोग स्वयं उसके पास पहुंच जायें। जिस ग्रन्थागारमे सबसे बड़ा साधन ही यही है, जिसका मैं उपर जिकर कर उसकी श्रा-यन्तरिक विभूतिका परिचय और परिवयम चकाई । यह काम स्वर्गीय पं. पन्नालालजी बाकलीवाल पाठकके चित्तको खीचनेका अाग्रह होगा, वह स्वयं धागे ने अपने जीवनकालमें बड़ी खूबीके साथ किया था। उनका बढ़कर जिज्ञासुश्रीको अपने घर बुला लेगा। इसे हम हमें अनुकरण करना चाहिये। ग्रन्थागारकी दानशीलता या उदारता कह सकते हैं, जो पाँचवाँ काम-रिसर्च या अनुसन्धान और शोधका उसकी जाग्रत जीवनी-शक्तिका परिचायक है। प्रन्थागारकी है। इसकी भी बड़ी-भारी जरूरत है, क्योंकि इसके बिना तरफसे ऐसी प्रकृनिगत महानता और दानशीलताका परिन हम जैनेतर विद्वानोंको जैनधर्मकी ओर आकर्षित ही कर चय प्रन्याध्यक्ष ही दे सकते हैं, और इस तरह वे अच्छे सकते हैं और न हम खुद ही वास्तविकतासे स्पष्टतया पाठकोंकी संख्या बढ़ाकर समाजमें अच्छे ज्ञानी पैदा कर वाकिफ हो सकते हैं। ये सब काम ऐसे हैं जिन्हें सरस्वती सकते हैं। इसके लिए यह ज़रूरी है कि ग्रन्याध्यक्षभवनोंकी सहायतासे अच्छी तरह किया जा सकता है। सरस्वती-भवनकी अल्मारियों में अस्छी तरह मिलसिलेवार कहनेका मतलब यह कि हमारे सरस्वती भवनोंके ग्रन्थ सजाने और उनका हिसाब रखने के साथ-साथ अपने द्वारा-संग्रह, रक्षा श्रीर सदुपयोग ये तीनों काम एक यहाँके ग्रन्थ या शास्त्रोंका सुलझा हुश्रा विशद ज्ञान भी साथ होने चाहिए, क्योंकि इन तीनोंका परस्पर ऐसा प्राप्त करलें; ताकि वे सुलझे हुए तरीकेसे प्राजकी भाषामें श्रृंखला-सम्बन्ध है कि इनमें से एक कदी टूटते ही सर्वत्र पाटकोंको उसका कल्याणकारी परिचय करा सकें। मतलब शिथिलता आ जाती है। यह कि ग्रन्थाध्यक्ष केवल ग्रन्थ-भण्डारका भण्डारी ही न अगर हम अपने तोनों सरस्वती-भवनोको एकत्र मिला (शेषांश टाइटलके तीसरे पृष्ठ कालम २ पर)
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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