________________
सेठ भागचन्दजी सोनीके भाषण के कुछ अंश
OXKO
:
[श्रीमान् रा० ब० सेठ भागचन्दजी सोनी अजमेरने ता० १६ जून १६४२ को 'श्री ऐलकपन्नालाल दि० जैन सरस्वतीभवन व्यावर' के वार्षिकोत्सव पर सभापति पद से जो भाषण दिया है उसके कुछ खास श्रंश अनेकान्तके पाठकों को जानने के लिये नीचे प्रकट किये जाते हैं। —सम्पादक ] हिन्दी में जितने भी राष्ट्रीय और साहित्यिक पत्र या पत्रिकाएँ निकलती हैं, उन सबमें 'कल्याण' अधिक संख्या में प्रकाशित होता है, जिससे हम अन्दाजा लगा सकते हैं कि अगर शुद्ध धर्म श्र धार्मिकों के सम्बन्धमें बोलने वाला कोई पत्र निकाला जाय, तो पाठकोंका अभाव न रहेगा; श्रवश्य ही इसके लिए यह जरूरी है कि उस पत्र में किसी भी तरह की आपसी वैमनस्यकी चर्चा या वाद-विवाद वगैरह कुछ भी न छपना चाहिए । इसके बिना न तो समाजमें कल्याणकी श्रभिरुचि ही पैदा की जा सकती है धौर न मौजूदा पत्र-पत्रिकाओं के बेढंगे ढंगमें किसी तरह का शुभ परिवर्तन ही लाया जा सकता है। यह काम कुछ चुने हुए मन्दकषाय, शान्तबुद्धि और स्व-पर-विवेकी बुधजनोंके द्वारा ही सुसम्पन्न या सफल हो सकता है। और इस बातका हमें शुरू से ही पूरा-पूरा ध्यान रखना होगा; नहीं तो पूरी कीमत चुकाकर भी हम उस चीज़ से बंचित रह जायंगे जिसके लिये हमने दाम चुकाये थे ।
"अगर हमारे समस्त सरस्वती-भवन मिलकर संगठिन रूपसे वीतराग वाणीकी श्रमृतधारा बहाना शुरू करदेंभारत मे सर्वत्र ऐसी 'प्याऊ' का रथ चलादे जो हमारी मृगतृष्णाको दूरकर हमे स्वस्थचित्त करके सुपथपर बढ़ने के लिए नवीन उत्साह और अटूट श्राशा दे, तो हमारी सेवा सर्वाङ्गीण पूर्ण हो जाय और हमारा यह मनुष्य जीवन सार्थक हो जाय ।
उपाय और साधन
इसके लिए श्रवश्य ही हमें उपाय-चिन्तन करना होगा, जिनमे से कुछ उपाय ये हो सकते हैं, जिनका हम नीचे उल्लेख कर रहे हैं :
(१) ऐसे एक मासिक पत्रकी योजना की जाय, जिसमें किसी भी तरहका वाद-विवाद न छिड़कर केवल धर्म और धार्मिको के सम्बन्ध में तात्त्विक और व्यावहारिक प्रकाश फैलाने वाली रचनाएँ प्रकाशित हुआ करें, यानी — एक जीव-तत्त्वको ( श्रथवा यों कहिये कि अपनेको) केन्द्र बनाकर, श्रत्यन्त सरलता और स्पष्टताके साथ, श्राजकी पद्धति और श्राजकी भाषामें ऐसी तात्त्विक और साथ ही व्यवहारिक थालोचना और उपदेशना हुश्रा करे, जिससे अनुकूल, प्रतिकूल और तटस्थ तीनों ही प्रकृति के पाठक और श्रोताओको नपी-तुली भाषा म 'सुलभी ओर छनी हुई यथावत् चीज मिला करे ताकि वे उसे अपनी बुद्धि और रुचि के अनुसार श्रात्मकल्याणका मार्ग तय कर सकें, और चाहें तो उसपर चलने के लिये श्रागे कदम भी बढ़ा सकें ।
दृष्टान्तके तौरपर हिन्दू-समाजके 'कल्याण' मासिक पत्रका नाम लिया जा सकता है, जिसका एकमात्र यही ध्येय है कि अपने पाठकोंमें धार्मिक अभिरुचि पैदा की जाय । यहाँ प्रसंगवश इतना कह देना बेजा न होगा कि
दूसरा काम - सरस्वती भवनों का यह होना चाहिए, और समाजको भी उससे लाभ उठाना चाहिए कि जो भी ग्रन्थ लिखाये जायँ, उनका शुद्ध प्रतियोंसे अच्छी तरह मिलान करा लिया जाय ताकि अल्पज्ञानी और कहीं-कहीं या प्राय: करके विपरीत - ज्ञानी शास्त्र लेखकों (प्रतिलिपि करनेवालों) से कीगई भूलोंसे हमारे ज्ञानमें कोई फर्क न थावे । इस कामको हमारे सरस्वती-भवन बदी आसानी से कर सकते हैं। इससे हमारे श्रुत या शास्त्रोंकी सुरक्षाके साथ-साथ उनकी विशुद्धिकी रक्षा होती रहेगी।
इस दिशा में, मुद्रित ग्रन्थोंकी तरफसे भी हमें निश्चिन्त नहीं रहना चाहिये-बल्कि उसमें तो एक साथ हजारों प्रन्थो में एक सी ग़लतियाँ रह सकती हैं और अकसर रहा करती हैं—और जब कि इस कालमें मुद्रित ग्रन्थोंका पठन