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________________ श्वे० तत्त्वार्थसूत्र और उसके भाष्यकी जाँच [सम्पादकीय नेनसमाजमें उमास्वाति अथवा उमास्वामीकी कृतिरूपसे किसी प्रकारका विरोध न होना चाहिये। और यदि उनमें पजिम तत्वार्थमूत्रकी प्रसिद्धि है उसके मुख्य दो पाठ कहीं पर ऐसी असंगति भेद, अथवा विरोध पाया जाता है पाये जाते हैं--एक दिगम्बर और दूसरा श्वेताम्बर। तो कहना चाहिए कि वे दोनों एक ही श्राचार्यकी कृति दिगम्बर सूत्रपाठको सर्वार्थसिद्धि-मान्य सूत्रपाठ बतलाया नहीं हैं-उनका वर्ता भिन्न भिन्न है-और इसलिये सूत्र जाता है, जो दिगम्बरसमाजमें सर्वत्र एकरूपसे प्रचलित है, का वह भाप्य 'स्वोपज्ञ' नही कहला सकता। श्वेताम्बरोंके और श्वेताम्बर सूत्रपाठको भाष्यमान्य सूत्रपाट कहा जाता तत्वार्थाधिगमसूत्र और उसके भाष्यमें ऐसी असंगति, भेद है, जो श्वेताम्बर समाजमें प्राय: करके प्रचलित है; परन्तु अथवा विरोध पाया जाता है, जैसा कि नीचे के कुछ नमूनों कही कही उसमें अच्छा उल्लेखनीय भेद भी पाया जाना से प्रकट है:है । भाप्यकी बाबत श्वे. समाजका दावा है कि वह (७) श्वेताम्बरीय सूत्रपाठमें प्रथम अध्यायका २३ बों 'स्वोपज्ञ' है-स्वयं सूत्रकारका ही रचा हुआ है। साथ ही सूत्र निम्न प्रकारहैयह भी दावा है कि मूल मूत्र और उसका भाष्य ये दोनों बिल्कुल श्वेताम्बरश्रुतके अनुकूल हैं-श्वेताम्बर भागों के _ 'यथोक्तनिमित्तः षविकल्पः शेपाणाम ।' थाधारपर ही इनका निर्माण हुया है, और इसलिये इसमें अवधिज्ञानके द्वितीय भेदका नाम 'यथोक्तनिमित्तः' दिया सूत्रकार उमास्वाति श्चताम्बर परम्पराके थे । दावेकी ये है और भाप्यमे 'यथोक्तानिमित्तः क्षयोपशमनिमित्त इत्यर्थः' दोनो बात कहीं तक ठीक हैं-मृल सूत्र, उसके भाष्य ऐसा लिखकर 'यथोकनिमित्त' का अर्थ 'क्षयोपशमनिमित्त' और श्वेताम्बरीय भागमो परसं इनका पूरी तौरपर सम बतलाया है, परन्तु 'यथोक्त' का अर्थ क्षयोपशम' किपी थंन होता है या कि नहीं, इस विषयकी जाचको पाठकोके तरह भी नहीं बनता । 'यथोक्त' का सर्वसाधारण अर्थ सामने उपस्थित करना ही इस लेखका मुख्य विषय है। होता है-'जैसा कि कहा गया', परन्नु पूर्ववर्ती किसी भी सूत्रमे 'क्षयोपशमनिमित्त' नाम से अवधिज्ञानके भेदका सूत्र और भाष्य-विरोध कोई उल्लंग्व नहीं है और न कहीं 'क्षयोपशम' शब्दका ही सूत्र और भाष्य जब दोनों एक ही प्राचार्यकी कृति प्रयोग पाया है, जिससे यथोक्त' के साथ उसकी अनुवृत्ति हो तब उनमे परस्पर असंगनि, अर्थभेद, मतभेद अथवा लगाई जा सकती। ऐसी हालतमे 'क्षयोपशमनिमित्त'के * देग्यो, 'तत्त्वार्थाधिगमसूत्र की एक साट पर प्रात' नामका अर्थमे 'यथोकनिमित्त'का प्रयोग सूत्रसंदर्भके साथ असंगत मम्पादकीय लेख, अनेकान्त वर्ष ३ किरण १ (वारशामनाङ्क) जान पड़ता है। इसके सिवाय, 'द्विविधोऽवधिः' इस तथा पं० मुम्बलालोंके तत्त्वार्थ-मत्र-विवेचनकी प्रस्तावना २वं मृत्रके भाग्यमे लिखा है-'भवप्रत्यय: क्षयोपशमका पृष्ट ८४-८५ निमित्तश्च', और इसके द्वारा अवधिज्ञानके दो भेदोंके नाम 'श्वे० ममाजक असाधारण विद्वान पं० सुखलाल जी अग्ने क्रमश: 'भवप्रन्यय' और 'क्षयोपशमनिमित्त' बतलाये हैं। नत्त्वार्थमूत्रके लेखकीय वक्तव्यमे लिग्बते हैं:-"उमाम्बाति २२ व सूत्र 'भवप्रत्ययो नारकंदेवानाम' में अवधिज्ञानके श्वेताम्बर परम्परा के थे और उनका ममाप्य तत्त्वार्थ प्रथम भेदका वर्णन जय भाष्यनिर्दिष्ट नामके साथ किया मचेलपक्षके श्रुत के अाधारपर ही बना है।" गया है तब २३ वें मूत्रमें उसके द्वितीय भेदका वर्णन भी
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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