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________________ अनेकान्त वर्ष५ भापनिर्दिर नाम साथ होना चाहिये था और तब उस यह कार्य बादकी कृति होनेसे यह नहीं कहा जा सकता कि सूत्रका रूप होता-"क्षयोपशमनिमितः पड्विकल्पः सूत्र और भाप्यमें उक्त प्रसंगति नहीं थी। शेषाणाम्", जैसा कि दिगम्बर सम्प्रदायमें मान्य है। परन्तु यहाँपर मैं इतना और भी बतला देना चाहता हूँ कि ऐसा नहीं है, अत: उक्त सूत्र और भाष्य की प्रसंगति स्पष्ट श्वेताम्बरीय भागमादि पुरातनग्रन्थों में भी साम्परायिक है और इसलिये यह कहना होगा कि या तो 'ययोक्तनिमित्तः' प्रास्रवके भेदोका निर्देश इन्द्रिय, कषाय, अवत, योग और पदका प्रयोग ही गलत है और या इसका जो अर्थ क्रिया इस सूत्रनिर्दिष्ट क्रमसे ही पाया जाता है; जैसाकि 'पयोपशमनिमित्त' दिया है वह गलत है तथा २१ वे सूत्र उपाध्याय मुनि श्रीवात्मारामजीद्वारा 'तत्वार्थसूत्र-जैनागमके भाष्यमें 'यथोक्तनिमित्त' नामको न देकर उसके समन्वय में उदघृत स्थानांगसूय और नवतावप्रकरण के निम्न स्थानपर 'योपशमनिमित्त' नामका देना भी गलत है। वाक्यासे प्रकट है:दोनों ही प्रकारसे सूत्र और भाष्यकी पारस्परिक असंगति में "पंचिंदिया पएणता 'चत्तारिकसाया पण्णत्ता... कोई अन्तर मालूम नहीं होता। पंचविरय पएणता पंचवीसा फिरिया एणत्ता।" (२) श्वे. सूत्रपाठके छठे अध्यायका छठा सूत्र है -स्थानांग स्थान २, उद्देश्य १ सू० ६० (१) " इन्द्रियकषायाऽव्रतक्रियाः पंचचतुःपंचपंच- "इंदियकसायअव्वयजोगा पंच चउपंच तिन्नि कमा ।" विंशतिसंख्याः पूर्वस्य भेदाः।" किरियाश्रो पणवीसं इमाओ ताओ अणुकमसो।।" दिगम्बर सूत्रपाठमें इसीवो नं. ५ पर दिया है। यह -नवतत्त्वप्रकरण इससे उक्त सुधार वैसे भी समुचित प्रतीत नहीं होता, सूत्र श्वेताम्बराचार्य हरिभद्रकी टीका और सिद्धसेनगगणी वह भागमके विरुद्ध पड़ेगा। और इस तरह एक असंगति की रीकामें भी इसी प्रकारसे दिया हुआ है। श्वेताम्बरोंकी से बचनेके लिये दूसरी असंगतिको धामन्त्रित करना होगा। उस पुरानी सटिप्पण प्रतिमें भी इसका यही रूप है जिसका (३) चौथे अध्यायका चौथा सूत्र इस प्रकार हैपरिचय अनेकान्तके तृतीय वर्षकी प्रथम किरणमें प्रकाशित हुआ है। इस प्रामाणिक सूत्रपाठके अनुसार भाष्य में पहले “इन्द्र-मामानिक-त्रायस्त्रिंश-पारिपद्याऽऽत्मरक्ष-लोकइन्द्रियका, तदनन्तर कषायका और फिर अवतका न्याख्यान पाला-नीक-प्रकीर्णका-ऽभियोग्य-किस्विषिकाकशः।" होना चाहिये था, परन्तु ऐसा न होकर पहले 'अवत' का इस सूत्रमे पूर्वसूत्र के निर्देशानुसार देवनिकायोंमेऔर प्रवत वाले तृतीय स्थानपर इन्द्रियका ब्याख्यान नवीय थाना इटियका व्याख्यान देवोंके दश भेदोंका उल्लेख किया है। परन्तु भाप्यमें पाया जाता है। यह भाष्यपद्धतिको देखते हुए सूत्रक्रमोल्लं. 'तद्यथा' शब्दके साथ उन भेदोको जोगिनाया है उसमे दश घन नामकी एक असंगति है, जिसे सिद्धसेनगणीने अन्य के स्थानपर निम्न प्रकारसे ग्यारह भेद दे दिये हैं:प्रकारसे दूर करनेका प्रयग्न किया है, जैसा कि पं.सुखलालजी “तद्यथा, इन्द्राः सामानिकाः त्रायस्त्रिशाः पारिपद्याः के उक्त तत्त्वार्यसूत्रको सूत्रपाठसे सम्बन्ध रखने वाली आत्मरक्षाः लोकपालाः अनीकाधिपतयः अनीकानि निम्न टिप्पणी (पृ. १३२) से भी पाया जाता है :- प्रकीर्णकाः आभियोग्याः फिस्विषियाश्चेति ।" ___"सिद्धसेनको सूत्र और भाष्यकी यह असंगति मालूम इस भाष्यमे 'अनीकाधिपतयः' नामका जो भेद दिया है हुई है और उन्होंने इसको दूर करनेकी कोशिश भी की है।" वह सूत्रसंगत नहीं है। इसीसे सिद्धसेनगणी भी लिखते परन्तु जान पड़ता है पं. सुखलालजीको सिद्धसेन हैं किका वह प्रयत्न उचित नहीं ऊँचा, और इसलिये उन्होंने मूल- "सूत्रे चानीकान्येवोपात्तानि सरिणा नानीकाधिसूत्र में उस सुधारको इष्ट किया है जो उसे भाष्य के अनुरूप पतयः, भाग्ये पुनरुपन्यस्ताः।" रूप देकर 'अवतकषायेन्द्रियक्रिया:' पदसे प्रारम्भ होनेवाला अर्थात-सत्रमें तो श्राचार्यने अनीकोंका ही ग्रहण बनाता है। इस तरह पर यद्यपि सूत्र और भाष्यको उक्त किया है, अनीकाधिपतियोंका नहीं। भाप्यमें उसका पुन: असंगतिको कहीं कहीं पर सुधारा गया है, परन्तु सुधारका उपन्यास किया गया है।
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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