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किरण १-२]
इससे सूत्र और भाष्यका जो विरोध भाता है उससे इनकार नहीं किया जा सकता । सिद्धसेनगणीने इस विरोध का कुछ परिमार्जन करनेके लिये जो यह कल्पना की है कि 'आकार और कापियों का विचार करके ऐसा मान्य कर दिया जान पड़ता है यह ठीक मालूम नहीं होगी क्यों और अनाधियों अनी की एकताका वैसा विचार पदे भाष्यकारके ध्यान होगा तो वह अनीको धीर धमीकाधिपतियोंके लिये चलन चल पद प्रयोग करके संख्याभेदको उत्पन्न न करता । भाष्य में तो दोनोंका स्वरूप भी फिर अलग थलग दिया गया है। दो दोनों भिन्नताका छोतन करता है । यों तो देव और देवाधिपति (इन्द्र) यदि एक हों तो फिर 'इन्द्र' वा अलग भेद करना भी व्यर्थ ठहरता है; परन्तु दश भेदों इन्द्रकी थलग गणना की गई है, इससे उक्त वरुपना ठीक मालूम नहीं होती । सिद्धसेन भी पनी इस दल्पना पर हद जालम नहीं होते, इससे उन्होंने आगे चलकर लिख दिया है"अन्यथा वा दशसख्य। भिद्येत" - श्रथवा यदि ऐसा नही है तो दशकी संख्याका विरोध श्राता है।
(४) श्वे० सूत्रपाठ के चौथे अध्यायका २६ व सूत्र निम्न प्रकार है
श्वेतत्त्वार्थसूत्र और उसके भाष्यकी जाँच
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*"क्तमेवानी कानीकाधिपत्योः परचिन्त भाष्यकारेण ।”
"ब्रह्मलोक परिवृत्याष्टासु दिक्षु अष्टविकल्पा भवन्ति । तद्यथा — "
इससे सूत्र और भाष्यकार है निय और पं० दुखलाल ने भी इस भेदयो स्वीकार किया है; जैसा कि उनके मिश्न क्यों है-वाक्योंसे प्रक्ट
"नवेवमेते नवभेदा भवन्ति भाष्यकृताचाविधा इति मुद्रिताः ।"
'इन दो सूडोके मूल भाष्य मे सोफाक देयों ही भेद बतलाये हैं, नव नहीं ।"
इस विषय मे सिद्धसेन गणी तो यह कहकर छुट्टी पागये हैं कि लोमन्तमें रहने वालों के ये आठ भेद जो भाष्यकार सूरिने थंगीवार वि ये हैं वे रिष्टविमान के प्रस्तार में रहने चालोकी पेक्षा नवभेदरूप होजाते हैं. श्रागम में भी नव भेद कहे हैं, इससे कोई नही
स्वयं सूत्रकारने नव भेदोंपा उल्लेख किया है तब अपने ही भाष्यमे उन्होंने नव भेदोंग उल्लेख न करके श्राठ भेदोका ही उल्लेख क्यों किया है, इसकी वे कोई माकूल वजह नहीं बतला सके। इसीसे शायद पं० सुखजाली
इसमें लोकान्को सारस्वत साहित्य बन्ि ग्ररुण, गर्दतीय, तुषित, श्रन्याबाध, मरुत और अरिष्ट ऐन भेदबताये है, परन्तु भाष्यकारने पूर्व सूत्र के भाग्य में और इस सूत्र के भाध्यमं भी जोकान्तिक देशभेद आठ ही बतलाये हैं और उन्हें पूर्वादि धाठ दिशा-विदिशाओं में स्थित सूचित किया है, निम्न भाष्योंने प्रकट है :
उस "सारलतादित्यचन्हारुण गई तो यतुपिताव्याबाध प्रकार से बहकर छुट्टी पा लेना उचित नहीं ऊँचा, और इम मरुतराव | " लिये उन्होंने भारी बाधा न पढ़ने देने के प्रयास यह वह दिया है दियो मूल में 'मी' पाठ पीछे प्रति हुआ है ।" परन्तु इसके लिये वे कोई प्रमाण उपस्थित नही कर सके । ब प्राचीनमें प्राचीन श्वेताम्बरीय टीका 'मस्ती' पाठ स्वीकृत किया गया है सब उसे यदी दिगम्बर पाठकी बात को लेकर प्रक्षिप्त नहीं कहा जा सकता । (क्रमशः)
"एते सारस्वतादयो ऽविधा देवा ब्रह्मलोकस्य पूर्वतिरादिषु दिक्षु प्रदक्षिणं भवन्ति दधार रुम ।"
यदि तमेव विमानप्रस्तावतिभिर्नवधा भवन्त्यदोषः । श्रागमे तु नद वातइति"