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अनेकान्त
[वर्ष ५
अनित्यमत्राणमहंक्रियाभिः प्रसक-मिथ्याऽध्यवसायदोषम् ।
इदं जगज्जन्म-जरा-ऽन्तकात निरंजनां शान्तिमजीगमस्त्वं ॥२॥ 'यह (श्यमान) जगत, जो कि अनित्य है, मशरण है, अहंकार-ममकारकी क्रियाओंके द्वारा संलग्न मिथ्या अभिनिवेशके दोषसे दूषित है और जन्म-जरा-मरणसे पीडित है, उसको(हे शंभवजिन !) आपने निरंजना—कर्ममलके उपद्रवसे रहित मुक्तिस्वरूपा-शान्तिकी प्राप्ति कराई है-उसे उस शान्तिके मार्गपर लगाया है जिसके फलस्वरूप वितनों हीने चिरशान्तिकी प्राप्ति की है।'
शतहदोन्मेप-चलं हि मोख्यं, तृष्णाऽऽमयाऽप्यायनमात्रहेतुः।
तृष्णाभिवृद्धिश्च तपन्यजनं तापस्तदायासयतीत्यवादीः ॥ ३॥ 'आपने पीडित जगतको-उसके दु.खका यह निदान बतलाया है कि-इन्द्रिय-विषय-सुख बिजलीवी चमक्के समान चंचल है-क्षणभर भी स्थिर रहने वाला नहीं है-और तृष्णारूपी रोगकी वृद्धि का एक मात्र हेतु है-- इन्द्रियविषयोंके सेवनसे तृप्ति न होकर उलटी तृष्णा बढ़ जाती है, तृष्णाकी अभिवृद्धि निरन्तर ताप उत्पन्न करती है और वह ताप जगतको (कृषि-वाणिज्यादि कर्मों में प्रवृत्त कराकर) अनेक दुःखपरम्परासे पीडित करता रहता है।'
बन्धश्च मोक्षश्च तयोश्च हेतू वद्धश्च मुक्तश्च फलं च मुक्त।
स्याद्वादिनो नाथ तवैव युक्त नैकान्नदृस्वमनोऽमिशास्ता॥४॥ 'बन्ध, मोक्ष, बन्ध और मोदके कारण, बद्ध और मुक्त तथा मुक्तिका फल, इन सब बातोंकी व्यवस्था हे नाथ ! भाप स्याद्वादी-अनेकान्तदृष्टिके मतमे ही ठीक बैठती है. एकान्तदृष्टियों-सर्वथा एकान्तवादियों के माम नहीं। अतएव श्राप ही 'शास्ता'-तत्त्वोपदेष्टा हैं-दूसरे कुछ मतोंमें ये बाते पाई जाती जरूर हैं. परन्तु कथनमात्र हैं, एकान्तसिद्धान्तको स्वीकृत करनेसे उनके यहां बन नहीं सकती, और इसलिये उनके उपदेष्टा ठीक अर्थमें 'शास्ता' नही रह जा सकते।'
शकोऽग्यशतस्तवपुरायकोन: स्तुत्यां प्रवृत्तः कि.मु मादशोऽज्ञः ।
तथाऽपि भक्त्या स्तुन-पाद-पद्मो ममाय देया शिवतानिरुच्चः॥५॥-स्वयंभूरनोत्र 'हे आर्य !-गुणों तथा गुणवानों के द्वारा मेव्य शम्भव जिन | श्राप पुण्यकति हैं-श्रापकी कीति-ख्याति तथा जीवादि पदार्थोंका कीर्तन-प्रतिपादन करनेवाली वाणी पुण्या-प्रशस्ता है-निर्मल है-श्राप म्तिम प्रवृत्त हुधा शवअवधिज्ञानादिकी शक्ति से सम्पन्न इन्द्र-भी अशक्त रहा है-पूर्णरूपमे स्तुति करनेमें समर्थ नहीं हो सका है-, फिर मेरे जैसा अज्ञानी-अवधि श्रादि विशिष्टज्ञानरहित प्राणी-तो कैसे समर्थ हो सकता है ! परन्तु थममर्थ होते हुए भी मेरे द्वारा आपके पदकमल भक्तिपूर्वक —पूर्णअनुरागके साथ-स्तुति किये गये हैं। (श्रतः ) मेरे लिये ऊंचे दर्जेको शिवसन्तति-कल्याणपरम्परा-देय है-मै उसको प्राप्त करनेका पात्र-अधिकारी हू।'
आवश्यक सूचना हमारे पास 'अनेकान्त' के प्रथम वर्षकी कुछ सी फाइले मौजूद है जिनमे पहली किरण नहीं है-शेप सब किरणे हैं। प्रथम वर्पकी पूरी फाइलका मूल्य यद्यपि ४) रु. है परन्तु स्टाक ग्वाली करने के लिये हम इन पहली किरणसे रहित फाइलोंको, लोकहितकी दृष्टिम, १) रु० मूत्र में ही दे देना चाहते हैं, जिसमे प्रथम वपे की फाइलमं जो बहुमूल्य साहित्य संगृहीत है वह लोगों के पढ़नेम आवे और जनता उसमे यथेष्ट लाभ उठावे। अतः जिन्हे आवश्यकता हो वे पोष्टेज व रजिष्टरीक खर्च महित शा) शीघ्र मनीआर्डरम भेजकर मॅगा लेवें। फिर ऐसे लोकोपयोगी उत्तम साहित्यका इस कौडियोके मूल्य में मिलना असंभव होगा।
व्यवस्थापक 'श्रनेकान्त' वीरसवामन्दिर, सरसावा जि० सहारनपुर