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* ॐ महम् *
वस्तूतत्त्व-सपात
विश्व तत्त्व-प्रकाशक
नीतिविरोधध्वंसीलोकव्यवहारवर्तकः सम्यक् । परमागमस्यबीज भुवनेकगुरुर्जयत्यनेकान्तः॥
वर्ष ५
)
वीरसेवामन्दिर (समन्तभद्राथम) सरसावा ज़िला सहारनपुर वैशाख-ज्येष्ठ, वीरनिर्वाण सं० २४६८, विक्रम सं. १६
। ।
अप्रेल-मई १६४२
किरण ३-४
समन्तभद्र-भारतीके कुछ नमूने
श्रीशम्भव-जिन-स्तोत्र
त्वं शम्भवः सम्भवत-रोग: सन्तप्यमानरय जनरय लोके । श्रासीरिहाऽऽकरिमक एव वैद्यो वैद्यो यथाऽनाथरजां प्रशान्त्यै ॥१॥
'(अन्वर्थ संज्ञाके धारक-) हे शम्भव जिन ! सांसारिक तृष्णा-रोगोंसे खूब पीडित जनसमूहके लिये पाप इस लोकमें उसी प्रकार आकस्मिक वैद्य हुए हैं जिस प्रकार कि अनाथोंके-द्रग्यादि सहाय-बिहीनोंके-रोगोंकी शान्तिके लिये कोई चतुर वैद्य अचानक पा जाता है और अपने लिये चिकित्साके फलस्वरूप धनादिकी कोई अपेक्षा न रखकर उन गरीयोंकी चिकित्सा करके उन्हें नीरोग बनानेका पूर्ण प्रयत्न करता है।' * शम्भा इत्पन्वयं रंज्ञा शं सुखं भवत्यसमाहव्याना इति शम्भव: -(जिनसे भव्योको सुम्य होवे वे 'शम्भव')'
-प्रभाचन्द्राचार्य