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किरण -६]
सम्पादकीय
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पोई सामग्री कोठियाजीके लेखम नही ली गई है। कुमारजीको प्रवृत्ति कई मह ने तक भी नहीं हुई थी वह
एक दिन कोठियाजी मेरे कमरेमे बैठे हुए थे, सामने प्रवृत्ति कोठियाजीके लेखको पाकर कोई एक-डेढ़ सप्ताहके जैन-सिद्धान्तभास्करकी क्त किरण खुली हुई थी, मैंने भीतर ही होगई, यह कोटियाजीके लेखका कुछ कम असर कोठियाजीये कहा कि- महेन्द्रकुमारजीके इस 'मूत्र' और नही है। इस दृष्टिसे भी कोठियाजीका लेख अच्छा ही 'सूत्रकार' शब्दों वाले उदाहरगा की आपने मूल ग्रन्थ परसे रहा। अस्तु। जाम भी करली है या कि नहीं। उन्होंने कहा---जाँच तो पं. महेन्द्रकुमारजीके प्रस्तुन लेखकी श्रन्य बातोंका नही की, यह समझकर कि उदाहरण ठीक ही होगा, और यह उत्तर देना मेरे इस नोटका कोई विषय नही--वह तो कह कर वे हाल में चले गये तथा श्लोकवातिकादिवो निकाल प्रायः उन विद्वानोका ही हिस्सा होगा जिन्हें लक्ष्य करके कर देखने लगे। थोडी देग्मे प्राकर उन्होंने नई खोनके यह लेख लिग्या गया है। मैं तो अपने पाटकोको, संक्षेपमें, उत्साहको लिये हुए बडे आश्चर्य के साथ कहा कि--मुख्तार इस लेख परसे फलित होने वाली दो एक सार बाते ही माहब ! महेन्द्रकुमारजीने तो बहुत मोटी भूल की है ! बतला देना चाहता है. और वे इस प्रकार हैं :-- उनके उदाहरण जो 'मूत्र' और 'सूत्रकार' शब्द श्राप (१) पं. महेन्द्र कुमारजीने, जैन सिद्धान्त-भास्कर हैं वे 'राजवानिक और 'अवलंकदेव' के बाचक हैं ही नहीं, प्रकाशित अपने पूर्वलेग्यमे प्राचार्य विद्यानन्दकी शैलीको वे तो 'तवार्थसूत्र' और 'उमास्वाति के लिये प्रयुक्त हुए विशेषताको बतलाते हुए लिखा था कि 'विद्यानन्द अपने हैं, चुनाचे आपने उसी समय शाश्वार्तिक्का स्थल भी पूर्ववर्ती किसी भी प्राचार्यको 'सूत्रकार' और अपने पूर्ववर्ती निकाल कर दिखलाया और इस बातको बा जयभगव न किसी भी ग्रन्थको 'सूत्र' लिखते हैं। और इसके समर्थनमें की प्रादि दूसर विद्वानों पर भी प्रकट किया तथा इसके श्लोकवार्तिकका एक अवतरण उदाहरणके नौर पर प्रस्तुत बाद ही अपने ले बम विद्यानन्दकी दृष्टिमे मूत्र और सूत्र- किया था, जिसमें श्राप हुए 'नूत्र और सूत्रकार शब्दोंको कार' प्रकरण की योजना की। इस घटना परये यह और भी क्रमश. राजघातिक और 'अकलंकदेव' के लिये प्रयुक्त स्पष्ट हो जाता है कि वोठियाजीको पं. रामप्रसादजीका हुश्रा बनलाया था, परन्तु यह बतलाना भूल-भरा था। उन, लेख उस वक्त तक भी देखनेको नहीं मिला था और ५० रामप्रसादजी और प० दरबारीलालजीवी औरसे इस न श्राश्रमके किसी दूसरे बहानके ही वह परिचयमे आया भूलके सुझाये जाने पर पं. महेन्द्रकुमार ने उसे इस था, अन्यथा वे उनसे कहते कि यह भूल तो पहले पं. लग्बने स्वीकार कर लिया है, परन्तु दूसरा कोई निर्विवाद रामप्रसादजी पकड चुके हैं। अस्तु, दो विद्वान एक ही उदाहरण प्रस्तुत नहीं किया, जिसमे उम नियम अथवा विषय पर विचार करते हुए यदि समान परिणाम पर लकी पुष्टि होती जिसे आपने विद्यानन्दकी शैलीकी विशेपहुंचे तो इसमें कुछ भी अस्वाभाविकता नहीं है। पताको बतलानेके लिये निर्धारित किया था। जब कि पं.
ऐसी स्थिति में बिना किसी जांच-पड़तालके ऐसा कह दरबारीलालजीने अपने द ग्वमे प्राचार्य विद्यानन्दके सात देना कि न्यायाचार्य ५० दरबारी लालजी कोठियाका लेख ग्रंथों परसे कोई ३६ उदाहरगा से प्रस्तुत किये हैं जिनमें प. रामप्रसादजी और पं० जिनदासजी शास्त्रीके लेखोंगी कहीं भी पूर्ववती अथो तथा अन्यकारीको मृत्र' तथा 'सूत्रसामग्रीसे समाण हुश्रा है और उन्हीं के लेखोकी सामग्रीके __ कार' नही लिखा है, और जिनका महेन्द्रकुमारजीने अपने पिष्टपेषण एवं पल्लवनसे उसका कलेवर बढा है. वह लेखमे कोई प्रतिवाद भी नहीं किया। इससे मालम होना उनकी उच्छिष्ट है कुछ भी उचित मालूम नही होता है कि विद्यानन्दकी शैलीक सम्बन्धम जो नियम ५० महन्द्र
पं० महेन्द्रकुमारजी कोठियाजीके लेखको उपेक्षाकी मारजीने बनाया था वह ब स्थिर नहीं रहा। दृष्टिपे देखें या अनुपेक्षाकी, परन्तु इतना को कहना ही होगा (२) पं. महेन्द्रकुमारजीन जैनम्द्विान्त भाम्बरम कि जिन प रामप्रसादजी और जिनदासजीके लेखाका प्रकाशित अपने पूर्वग्बम अाचार्य विद्यानन्दके जिन उत्तर देने और अपनी भूलको स्वीकार करनेमें पं. महेन्द्र- उल्लेम्बोंको अपने निर्णयका मुख्य आधार बनाया था उन