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________________ अनेकान्त [वर्ष ५ है कि मणिमान् पर्वत पर श्रीनमि-जिनेन्द्र के प्रधान गणधर तथैव निर्वाण फलावसानां (न) लोक(क) प्रतिष्ठा (प्रतस्थौ) श्रीवरदत्त केव नी भव्य जीवोंको धर्मोपदेश देते हुए विराज सुरलोकमूनि ॥' रहे थे। बरागनरेश दीक्षा ग्रहणार्थ श्रानर्तपुरम चलकर २". 'वराङ्गःसर्वार्थ सिद्धिगमनं नाम एकत्रिंशतितमःसर्गः।" यहाँ पाये और वरदत्तके चरणोंकी बन्दना करके बैठे। ३“सो भुनि वरांग सु प्राघु पयत त्यागि प्रान सु देह को। (३) ३१वे सर्गके ५५ मे ५८ तकक पदाम उल्लिवित सर्वार्थसिद्धि गये तब यह विनत सुरत्रिय नेरु को। है कि वरॉगमुनि नगर-ग्रामादि अनेक प्रदेशोम विहार करके इन उल्लेखमि यह बतलाया गया है कि वराग मुनिने अग्नी आयुकी अन्तिम अवधि निकट जान, मागरवृद्धि मणिमान् पर्वत पर एक मामका ममाधियोग धारण किया आदि मुनीश्वरोके माथ ममाधिमरगणकी भावनामे उसी और अपनी आयुके अन्तिम समयम वे महात्मा उपशान्त मणिमान् पर्वतपर आये। वहाँ अाकर उन्होंने प्रथम ही श्री माह नामके ११वे गुणस्थानको प्रात हुए। चूं कि सत्ताम बरदनकी निर्वागणभामको प्रदिक्षणा देकर नमस्कार किया, कर्मोका बन्ध अवशेष था इस कारण वे निवृत्तिको प्राप्त और फिर पंडित मरणको इच्छाम माधुवर्गके माथ प्राया३. नही हुए । विन्तु परम विशुद्ध लेश्यासे शरीरका छोड़कर गमन मंन्यास धारण किया । जान-दर्शन-चारित्र-तप रूप अाराधनाके फल को प्राप्त हुए। बरागचरितके इन उल्लेखोमे यह ना स्पष्ट होजाता है जिस प्रकार उस वीर वरागने राज्यको छोड़कर तप और कि वरदनका निर्वाणभूमि निर्वाणकाण्डम बताई गई तार- मंयमका श्रानरण किया उसी प्रकार-उमक फल-स्वरूप वरनगर न होकर 'मागमान् पर्वन' है। माथह। यह भी व स्वर्गलोकक शिखरपर स्थित लोकको-अहमिद्रपदरूप विदिन हो जाता है कि वह पर्वत मरस्वती नदीक और मर्वार्थ मद्विको-गये। वहांसे चयकर एक भव मनुष्यका श्रानतपर नगाके पाम है । दि० जनमाहित्यमे अभी तक धारण करके निर्वाण फलको पायंगे। श्रानर्तपरका वगान मिया बरांगचरित्रवे अन्यत्र कही मी मिद्धान्तका नियम है कि क्षकश्रेणी चदने वाले ही देखने में नहीं पाया । रमा नाद नारवर नगरका ओर बरोग केवलज्ञान प्रान कर सकते हैं, उपशमभेणी चदने वाले की मुक्तिका अन्यत्र कटी उल्लंग्व देवनेका नहीं मिलता। नही। उपशमश्रेणी मॉडने वाले जीव अवश्य गिरते हैं । श्रानतपरका वर्णन महाभारत और नागवतम जरूर पाया अस्तु. यहां यह लिख देना उचित जान पड़ता है कि उक्त है। भागवतके अनुसार द्वारका अानत देशमे थी । निर्वाण- जटिल कविके मुद्रित चरागचरितम प्रो० । एन. उपाध्ये काण्डकी उक्त गाथाका क्या अाधार रहा है यह कुछ ममझ ने मर्ग ३१ के. १०७ पद्यके निव'नि नापदनो' अश पर मे नही आता है। जो Better प्रापदतो' टिप्पणी दी है. और हिन्दी मार ___ जटिल कवि और भट्टारक बदमानक, मंस्कृत वराग पृ.६६ पर ( वगगने ) अाठ कर्मों का नाश करके मुक्ति चरिती तथा भाषाक अन्य वगग चरिताक. अनुमार वगग प्राप्ति की" तथा विषयानुक्रम पृ. ८८ पर 'वरागस्य राजा मोक्ष न जाकर मार्थ मिाद्वको गये हैं। दम विषयक निर्वाणामि' म्प वगगके मोक्ष गमन-परक उल्लेख किये हैं दो प्रमाण जटामिहनदीक, वगगचरितम ओर एक व मब किमी भूल के परिणाम जान पड़ते हैं। मूल ग्रन्थ परमे कमलनयन कांचक भाषा बगगचरितम, जाक भ० वर्द्धमान उनका ममर्थन नहीं हो सकता है कि प्रो० मायके ध्यानम के परागचरितके आधारपर बना है, नीचे दियं जान हैं:- मम्पादनके ममय निर्वाण काण्डकी उक्त गाथा रही हो और .. . .. . महामुनिर्मासमथा युवास ॥१०॥ इम नरद ग्रन्थका का स्पष्ट उल्लेख अंझल हो गया हो। कृवा कषायोपशमं क्षणेन भ्यानं तथाचं समवाप्य शुक्लम् । करके हम विवेचनपरमे यह स्पष्ट है कि वरोंगयथोपशान्तिप्रभवं महात्मास्थानं समं प्राप वियोगकाले॥१०॥ चरितके अनुमार वरदत्तकी निर्वागणभूमि और वरोगका कर्मावशेषप्रतिबद्ध हेतोःमनिवृतिं नापदतोमहान्मा॥१०७॥ ममाधि-स्थान मणिमान् पर्वत है और वगग मोक्ष न जाकर विमुच्यदेहमुनि(सुवि)खलेश्यःआराधयन्नं(नान्त)भगवाञ्चगाम मर्वार्थमिद्धिको गये हैं। यौववीरः प्रविहाय राज्यं तपत्र मतसंयममाचचार । वीरमेवामंदिर, सरमावा ता. ११-३-१९४२
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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