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________________ किरण १२] सम्पादकीय ३ शाहा जवाहरलालजी और जैन ज्योतिष- कुछ असंसे आपके हृदयमें यह खयाल पैदा हुआ शाहा जवाहरलालजी प्रतापगढ़ (राजपूताना) के । कि ज्योतिप-विषयका जो विशेष अनुभव हमने प्राप्त एक प्रमिद्ध जैन चैद्य एवं मम्पन्न व्यक्ति है। बाल्याव किया है वह कहीं हमारे साथ ही अस्त न होजायस्थासे ही शास्त्रों के अभ्यासी एवं प्रतिष्ठादि कर्मकाण्डों उसका लाभ दमरोंको मिलना चाहिये । माथ ही, यह के ज्ञाता हुंवड जातिके महाजन है। आपकी अवस्था शुभ भावना भी जागृत हुई कि जैन ज्योतिप-ग्रन्थोंका ६६ वर्षकी हो गई है । धन-कुटुम्बादिसे समृद्ध होने के हिन्दी में अनुवाद करके उन्हें ममाज में प्रचारित किया माथ साथ आपके पाम निजका अच्छा शास्त्रभराडार ज जाय, जिमसे जैनियों में ज्योतिपविद्याकी जानकारी है, जिसकी एक सूची भी आपने मेरे पास भेजी है। बढ़े और पब्लिकपर उनके ग्रन्थरत्नोंका अच्छा प्रभाव यद्यपि मग अभी तक आपसे कोई साक्षात्कार नहीं पड़े । फलतः देवेन्द्रमूरिके शिष्य हेमप्रभसूरि-विरचित हुआ, फिर भी पत्रों तथा कृतियोपरस यह स्पष्ट जाना 'त्रैलोक्य प्रकाश' नामका जो १३७० शोक-परिमाण जाता है कि आप बड़े ही विनम्रस्वभाव एवं सरल जैन ज्योतिप ग्रंथ आपको संवत् १६५६ के श्रावण प्रकृति के सज्जन हैं-अभिमान तो शायद आपको छूकर माममें श्री शान्निविजयजी महाराज के पासस, गन्दनही गया। अपनी बेटियोंको समझना, भलको सहपे मौर में उनके चातुर्मामके अवसरपर, उपलब्ध हुआ म्वीकार करना और भूल बतलाने वाले के प्रति कृतज्ञता था और जिमकी तीन दिन में ही आपने स्वयं अपने व्यक्त करना जैस आपमें उदारगुण हैं। इसके सिवाय, हाथमे प्रतिलिपि की थी नथा ३६ वर्ष तक जिसका पगेकार की आपके हृदयमें लगन है और आप अपने अवलोकन एवं मनन होता रहा था, उसकी आपने अन्तिम जीवन में माहित्यसेवाका भी कुछ पुनीत कार्य श्रावण संवन १६६८में भापावनिका बनानी शुरू कर कर जाना चाहते हैं । वैद्य होने के साथ माथ ज्योतिप दी और माघ वदि ३ संवत १९६८ मोमवारक दिन के विपयम आपकी बडी मचि है और उस ओर उम पूरा कर दिया। साहित्यमवाके क्षेत्र में यही अापकी प्रवृत्तिकी कुछ रोचक कथा भी है। आप शुरु शुरू पहली कृति है, जिसके अन्तम श्राप लिखते हैंमटेके व्यापार में तेजी-मंदी जाननेके अर्थ शकुनादिका "आज ६५ वर्षकी श्रायुमें केवल यह एक ही त्रुटिपूर्ण परिचय प्राप्त करनेकी ओर बढ़े और बढ़ते बढ़ते कार्य करने पाया है।" आप स्वयं अपनी वचनकाम ज्योतिप-शास्त्रों के अभ्यासमें गाढ़ रुचि कर बैठे ! जैन अभी २० प्रतिशत त्रुटियोका अनुभव कर रहे हैं और ज्योतिपक कुछ ग्रन्थोंको पाकर तो आपकी रुचि इस उन्हें दूर करनके प्रयत्नमें हैं। क्योंकि ग्रंथकी जो प्रति ओर और भी प्रदीप्त हो उठी और आपने उनमें मरे आपको उपलब्ध हुई वह बहुत कुछ अशुद्ध है । इमीसे ग्रन्थोंकी अपेक्षा कितनी ही विशेषताओंका नोट किया ता०१८ जनवरी सन १६४२ को जो पहला पत्र आपने है और अनेक स्थानोपर जनप्रक्रियाको विभिन्न पाया मुझे लिखा, उममें अपनको प्राप्त कुछ जैन ज्योतिष है। साथ ही, आपको यह देखकर कष्ट हआ है कि ग्रन्थोंका परिचय देते हुए तथा त्रैलोक्यप्रकाशकी जैन ज्यातिपके कुछ ग्रन्थोंको अजननि थोड़ासा परि- टीका-समाप्ति की सूचना करते हुए, शुद्ध प्रतियों के प्राप्त वर्तन करके या नामादिक बदलकर अपना बना लिया कराने आदिकी प्ररेणा की है, जिससे जिन श्लोकोंका है, जिसका कारण जैनियोंका प्रमाद और उनमें ज्यो- अर्थ मंदिग्ध है अथवा छोड़ना पड़ा है उस सबकी तिष विद्याकी कमी तथा तद्विपयक ग्रंथोंक पठन-पाठन पूर्ति होजाय तथा जैन ज्योतिपके अन्य भी कुछ ग्रन्थ का अभाव ही कहा जा सकता है। इस विषयके आपने देखने को मिले। इस पत्रमे दूसरे दो ग्रन्थोंकी भी कुछ नमूने भी प्रमागग-सहित उपस्थित किये है, जिन्हें टीका किये जानेका उल्लेख करते हुए और जैनज्योतिपफिर किमी ममय प्रकट किया जायगा। ग्रन्थोंकी विलक्षण प्रक्रियाका कुछ नमूना दिखलाते हुए
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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