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________________ महाकवि स्वयंभु और त्रिभुवन स्वायंभु (ले०-श्री पं० नाथूरामजी प्रेम। ) XXXX 4X न विद्वानोंने लोकरुचि और लोकमाहिन्य . स्वय स्वयंभुने अपने पउमचरिउ, रिढणे मिचरित कम की कमी उपेक्षा नहीं की। जनसाधारण (हरिवमुपुराणु) और स्वयंभु-छन्द इन तीनों प्रन्थोंमे कहीं के निकट तक पहुँचने और उनमें अपने भी 'चतुर्मुख स्वयंभु' नामसे अपना उल्लेख नहीं किया है विचारोंका प्रचार करनेके लिये वे लोक- सर्वत्र ही स्वयंभ लिखा है और स्वयभके पुत्र त्रिभवन ने xभाषाका प्राश्रय लनेसे भी कभी नहीं भी अपने पिताका नाम स्वयंभु या स्वयभुदेव ही लिखा है। . चूके। यही कारण है जो उन्होंने सभी २ महाकवि पुष्पदन्तने अपने महापुराण में जहां अपने प्रान्तोंकी भाषायोको अपनी रचनायोमे समृद्ध किया है। पूर्वके अनेक ग्रन्थकर्ताश्री और कवियोका उल्लेख किया है अपभ्रंश भाषा किसी समय द्रविद प्रान्तो और कर्नाटकको वहाँ वे 'चउमुहु' और 'सयंभु' का अलग अलग प्रथमा छोड़कर प्रायः मारे भारतमे थोडे बहुत हेर-फेरके साथ एकवचनान्त पद देकर ही स्मरण करते हैंसमझी जाती थी। श्रतएव इस भाषामे भी जैन कवि च उमुहु सयभु सिरिहरिसु दोगु, विशाल-साहित्य निर्माण कर गये हैं। रणालाइउ कइईसाणु बाणु । १-५ धक्कहकुलके पं० हरिषेण ने अपनी 'धम्मपरिक्खा' में अर्थात न मैंने चतुर्मुख, स्वयंभ श्रीहर्ष और द्रोणका अपभ्रंश भाषाके तीन महाकवियोकी प्रशंसा की है। उनमें अवलोकन किया, और न कवि ईशान और वाणका । सबसे पहले चउमुहु या चतुर्मुख हैं जिनकी अभी तक कोई महापुराणका प्राचीन टिप्पणकार भी इन शब्दोंपर जुदा रचना उपलब्ध नहीं हुई है, दूसरे हैं स्वयंभुदेव जिनकी जुदा टिप्पण देखकर उन्हें पृथक् कवि बतलाता है। "चउ. चर्चा इस लेख की जायगी और तीसरे हैं पुष्पदन्त जिनके मुह कश्चिकविः । स्वयभु-पद्धडीबद्धरामायणकर्ता प्रायः सभी ग्रन्थ प्रकाशमे आ गए हैं और जिनसे हम श्रापलीसंघीयः।" परिचित भी हो चुके हैं। पुष्पदन्तने चनुर्मुख और स्वयंभु दोनोंका स्मरण किया ३ पुष्पदन्तने भागे ६६ वी सन्धिमे भी गमायणका है, और स्वयंभुनं चतुर्मुखी स्तुति की है अर्थात चतुर्मुग्व प्रारंभ करते हुए सयभु और चउमुहुका अलग अलग स्वयंभुसे भी पहलेके कवि हैं। उल्लेख किया है। ४ पं० हरिषेण · ने अपने 'धम्मपरिक्खा' नामक चतुर्मुख और स्वयंभु २ महाकवि बाणने अपने हर्षचरितम भापा-कवि ईशान प्रो. मधुसूदन मोदीने चतुर्मुख और स्न्यभुकोन जाने। कैसे एक ही कवि समझ लिया है। वास्तवमें ये दोनों और प्राकृत-कवि वायुविकारका उल्लेख किया है। देग्यो, श्री गधाकुमद मकर्जीका श्रीहर्ष, पृ० १५८ । जुदा जुदा कवि हैं। इसमें सन्देहकी जरा भी गुंजाइश ३ कइराउ मयंभु महायरिउ, सी मयणमहामहिं परियरिउ । नही है। क्योंकि चउमहह चयारि मुहाई जहि, सुक इत्तणु मीसउ काई नहि।। १ देखो, भारतीय विद्या ( अङ्क र अोर ३, मार्च और __ अर्थात् कविगज स्वयंभु महान प्राचार्य हैं, उनके अगस्त १६४० ) में प्रो. मोदीना 'अपभ्रंश कविश्रो : सहस्रो स्वजन हैं; और चतुमुखके तो चार मुग्व हैं, चतुमुख स्वयंभु अने त्रिभुवन स्वयंभु' शीर्षक गुजराती उनके आगे मुकवित्व क्या कहा जाय ? लेग्व । ४ पं० हरिपेण धक्कड़कुल के थे। उनके गुरुका नाम मिद्ध
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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