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________________ १५२ अनेकान्त वादीले एक महत्वपूर्ण बातपर इन शब्दों प्रकाश डालते हैं: देशाः किं चला धीरेव वाधिका । श्रवहितो धर्मे स्यादवधानं हि सचमुच देश, काल और दुर्जनों उनके द्वारा चंचल की गई बुद्धि ही लिए धर्ममें सावधान होना चाहिये, मुफिके लिए कारण होता है। यहां पाने सूक्ष्मपर्यालोचन करते हुए बाह्य निमित्त गौण बनाते हुए आत्मपतनमें कारण अपनी ही दूषित मनो को बताया है। महाकवि वादीभसिंह कहते हैं कि वस्तुका यथार्थ 'धन्तवन करने के लिए यह श्रावश्यक है कि व्यक्तिका तिःकरण मत्सरभावरूप विकारोंपे मलिन न होनत्राणां हि नोदेति वस्तुयाथात्म्य चिन्तनम् ||१०-३५।। सम्पतिः - मुक्तये ॥२-५४ ।। क्या होता है ? बाधाकारी है। इस क्योंकि उपयोग ही जिस प्रकार संसारकी अन्य वामनाएँस प्राणी के अंत:करणको अन्धा बना दिया करती हैं, उसी प्रकार सम्पत्तिका मद भी बहुधा विवेक चतुओं को नष्ट कर दिया करता है । इसी कारण धनान्ध पुरुषोंका श्राचरण धनुषा- अन्धों को मात करता है। इस विषय में श्राचार्य महाराज बड़े मार्मिक शब्द प्रकाश डालते हैनवति न युध्यन्ति न प्रयान्ति च सत्यधम । प्रयान्तोपि न कार्यान्तं धनान्ध इति चिन्त्यताम ।।२-५६ अयं धनान्य पुरुष न सुनते हैं (यद्यपि उनके कान मौजूद हैं हाँ मतलवकी बातको तरकाल ग्रहण करते हैं) न समझते हैं ( कारण सच्चे हितकी शिक्षा के विषय में वे उपयोग ही नहीं लगाते हैं), न कल्याणप्रद मार्ग में प्रवृत्ति करते हैं (कदाचित उपयोगी कथनको सुनले तथा समय भी ले तो), प्रवृत्ति करते हुए भी कार्य के परिणाम तक नहीं जाते। साधारणतया लोगोकी धारणा है कि जैसे जैसे संपत्ति अधिक होती जाती है वैसे वैसे धानन्द तथा शांतिकी वृद्धि भी होती जाती है। इस विषय में भ्रमनिवारण करते हुए आचार्य महाराज कहते हैं । धनार्जनादपि क्षेमे क्षेमादपि च तत्क्षये । उत्तरोत्तरवृद्धा हि पीड़ा नृणामनंतशः ।। २-६७ ।। वष ५ अयं संपलिका अर्जन करनेमें जितनी पीड़ा होती है, उससे अनंतगुणी पीडा उस द्रव्यके रक्षण करनेमें होती है, इसी प्रकार संपत्तिके चयमे अनंतगुणा दुःख होता है । इस भांति उत्तरोत्तर अनंतगुणी पीड़ा बढ़ती जाती है। तात्पर्य यह है कि संपके कमानेसे उसके विनाश तक सब अवस्थाओं मे अधिक ही अधिकता सताती है, जिस से वास्तविक शान्तिका दर्शन भी दुर्लभ हो जाता है । धन अनेक बाधा विद्यमान हैं किन्तु ऐसे वीतराग विरले प्रार्थी है जिनने पनकी लालसा व्यागी है इसी लिए एक कविने कहा है कनक- कामिनी विषय बस दीखे सब संसार | त्यागी वैरागी महा साधु सुगन भंडार ॥ धनकी लालसा साधारणतया सभी प्राणियों के अंत:करण में रहा करती है इस सम्बन्ध ग्रंथकार कहते हैं धनाशा कस्य नो भवेत (३-२) - धनकी श्राकांक्षा सिके नहीं होती पैतृक विपुल इव्य होते हुए भी मनुष्य शातिपूर्वक उसका उपभोग नहीं करता । । अस्तु पैतृक मस्तकं वस्तु किं तेन वस्तुना । रोचते न हि शीगाव परपंरादिदीनता ||३-४॥ पनि यदि महान भी हो, किन्तु वह किस कामकी ? उद्योगी पुरुष श्रन्यके द्रव्यकी दीनताको पसंद नहीं करते । निर्धनता है दरिद्रताके विषय में श्राचार्य बडे मार्मिक शब्दोंमें दर्शन करते हैं के सचमुच प्रालिए दरिद्रता मौतके समान है, यद्यपि इसमें यह विशेषता है कि यह प्राणोंके रहने हुए अत्यन्त मरणं प्राचैः प्राणिनां हि दरिद्रता ॥३-६॥ जहाँ संपत्तिशाली पुरुष 'धनैर्निष्कुलीना कुलीना भवंति - कुलहीन होते हुए भी कुलीन माने जाते हैं, मंदज्ञानी होते हुए भी विद्वान् माने जाते हैं। श्रदर्शनीय और गुसहीन होते हुए भी सुंदर तथा गुणसम्पन्न माने जाते हैं वहाँ गरीबीमें विद्यमान गुणोंको भी नहीं पूछा जाता । इस कारण श्राचार्य लिखते हैंरिक्तम् हि न जागर्ति कीर्तिनीयो थिलो गुगाः । हन्त किं तेन विद्यापि विद्यमाना न शोभते ॥ ३-७॥
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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