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________________ किरण ३-४ ] ग्रंथकार विज्ञानको स्वयं देने के योग्य बनाते हुए कहते हैं— स्वयंदेया सती विद्या प्रार्थनाचा तु किं पुनः " [ ७–७४ ] अर्थात् समीचीन ज्ञानको स्वयं देना चाहिए, यदि उसे कोई प्रार्थना मोगे तो क्या कहना, उसे तो अवश्य दान करना ही चाहिए। क्षत्रचूड़ामणि और उसकी सूक्तियाँ 4 नीतिकारोने बताया है कि मनुष्य में जैसा जैसा ज्ञान बढ़ता जाय जैसा वैसा उसे अधिक विनीत और निरभिमान बनते जाना चाहिए। लेकिन इस नियम के अपवाद सरूप द्याचार्य महाराज एक खास बात बताते है कि मुवतिविग्याना युक्त हि वलकोने नम् ॥८-४७ - सायन्त निपुण के प्रति अपने बलका वर्णन करना उचित है। इसका कारण यह है किसुविनिया न हि युक्तिवित किरणः-४८ 'मूह पुरुष तो जो सुन लेते हैं उसे ही निश्चय करते हैं, वे लोग कुछ तर्क-वितर्क नही करते हैं।' दुर्जन और सज्जन दुर्जनीका वर्णन करते हुए कवीश्वरने यह लिखा हैमनत्यन्यवचस्यन्नकर्मण्यन्यद्धि पापिनाम ।। १-४३ मन, वचन और काम में भिन्न प्रवृत्तिका होना पाया स्वरूप है। अन्याभ्युदयन्नित्वं तद्धि दोर्जन्यलक्षणम् ॥ ३-४८ श्रन्यका श्रभ्युदय देखकर दुखी होना दुर्जनताकालक्षण है । नीचत्वं नाम किं न स्यादयति दगुरागिता || नु यदि गुणों अनुराग है तो फिर नीता प्रकृत्या स्याकृत्ये श्री शिक्षायां तु [ ५-५ ] क्या रही ? कि पुनः ।। [ ३-५० ] यदि इन्टी स्वभावतः वृद्धि की शिक्षा भी मिल जाये तो क्या कहना है ? 3 इस कारण यह जरूरी है कि प्रयत्नपूर्वक बुद्धिको ठीक रास्तेपर लगाते रहना चाहिये । ग्रंथकार कहते हैं कि जो नम्रता पुरुषों के लिए शौतिका कारण होती है, वही के लिए गर्व का कारण होती हैमतां हि प्रहृता शान्त्य खलानां दर्पकारणं ॥५- १२|| सचमुच ही यदि सामर्थ्य है, तो बिना दंडनीतिके है, १५१ दुष्टोकी वृद्धि ठिकाने नहीं लगाई जा सकती। दुर्जनको न तो स्वयं नम्रता पसंद है और न दुर्जनों की नम्रता हितकारी है मतां हि विनम्रत्वं धनुपामिव भीषणम् ||१०-१४।। कर्दमे धनुताके समान होता भयंकर होती है । उचित तो यह है कि दुर्जनों के साथ सम्बन्ध ही न रखें क्योंकि उनके प्रति किया गया सद्व्यवहार भी कीचढ़ में गिरे हुए जल के समान होता हैहि दुर्जना सौजन्यं कदम पतितं पयः ||१०-२४३ प्राय देखा जाता है कि बुरी बातोंका जितना जल्दी और सरलनामे प्रचार हो जाता है उतनी शीघ्रतासे अच्छी बातोंका प्रचार नही हो पाता। इस विषय में महाकचि चादीभसिंह एक महत्त्वपूर्ण बात बनाते हैं--- खलः कुर्यान बलं लोकम अन्यमन्यो न कंचन | न हि शक्यं पदार्थानां भावनं च विनाशयन ॥४६॥ दर्जन पुरुषको दुष्ट बना देता है, सम्पुरुष लोकको सज्जन नहीं बना सकता। क्योंकि जिस प्रकार पदार्थों का विनाश सम्भव हैं, उस प्रकार उनका बनना सम्भव नहीं है । तात्पर्य यह है कि बनाना कठिन है. बिगाड़ना बिल्कुल सरल है। मनोवृपिरोपकारके लिये होती है, चाहे श्रोता नव्य हो या भव्य -- भव्य वा स्यान्ना ना पराये हि मतां मनः॥६- १०१ वृत्तिका आचार्य वर्णन करते हुए बताते हैंपापां समभावा हि सज्जनाः परे तु प्रसन्ना विपन्नात्र निसर्गतः ॥ ३८ ॥ अर्थात-सत्पुरुष अपनी संपत्ति तथा आपत्ति समभाव रखते हैं अर्थात हर्ष एवं विषाद नहीं करते । किन्तु स्वभाव धन्य संपतिये धानंदिन और विपण व्यथित होते हैं । थाचार्य महाराज सज्जनोंके विषयमें कहते हैंस्वापदं न हि पश्यन्ति सन्तः पाग तत्पराः ॥४-३३ परोपकार में तत्पर सत्पुरुष अपनी आपत्तिका ख्याल नहीं करते हैं। अर्थात् दूसरे पुरुषोके कोके निवारण करने की धुन में मग्न रहनेके कारण उनका अपने कष्टकी थोर ध्यान ही नही जाता है।
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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