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अनेकान्त
[वर्ष ५
ग्रंथकार तप और राज्यमे समानता बताते हुण्लिखते हैं- प्रकार निन्दनीय है जैसे मरस केला और अत्यन्त मधुर क्षीर तपसा हि सम राज्यं योगक्षेमप्रपंचतः।
श्रादिके उपचारसे पालन किए गए उस तोतेके बच्चेकी प्रमादमत्यधःपातादन्यथा च महादयात ।।११-८॥ जिन्दगी जो पिजरे मे बन्द है। कन्तु-अपने बलके वैभवसे
अर्थात्-योग और क्षमका विस्तार करनेके कारण प्राप्त मृगोके इन्द्रपद में प्रतिष्टित गजेन्द्रोके गंडस्थलके तपके समान राज्य भी है, क्योंकि प्रमादके होनेपर महान विदारण करने में प्रवीण तीक्ष्ण नस्व वाले सिहके जीवनके उदयपूर्ण अवस्थासे अधःपात हो जाता है।
समान स्वतन्त्रतापूर्ण जीवन निन्दाविहीन अभिनन्दनके अहिंसा धर्मके पालक जैन क्षत्रिय लोग जब संग्राम योग्य, निर्दोष और अत्यन्त हृदयहारी है। स्थलमै अपरिमित प्राणियोंका वध तक करते हैं, तब भला एक बात अवश्य ध्यान देने की है कि उपरोक्त स्वावे कही व्रती हो सकते हैं इस शंकाका प्राचार्य महाराजके धीनताका गुणगान यदि पापी काष्ठांगारके मुखये न हुअा इस वाक्यमे समाधान हो जाता है
होता, तो वह अधिक शोभनीय मालूम पड़ता। यह वर्णन 'मुधा वधादिभीन्या हि क्षत्रिया बनिनो मताः' काष्टांगारके मुखसे सुनकर एसा ही बेतुकासा मालूम पड़ता
अर्थत-अनावश्यक हिंसा श्रादिमे भय रखने के कारण है जैसा कि पापकर्ममे प्रवृत्ति करने वाली वेश्याके मुखसे क्षत्रिय व्रती माने गये हैं (१०-३८)।
ब्रह्मचर्यका गुणवर्णन । धार्मिक नरेश सफलता प्राप्त करने के अनंतर सफलता
गुरु और शिष्य:के मूलकारण वीतराग परमात्माके चरणोकी अाराधनाको
श्राचार्य महाराजने गुरु और शिष्यका पद विशेष नहीं भूलते हैं, इसी बातको बतानेके लिए ग्रंथकारने
महत्त्वपूर्ण बताया है। गुरुको श्राप रग्नत्रयमे विशुद्ध, जीवंधरस्वामीके द्वारा युद्धमे विजय होनेके पश्चात राजपुरी
सत्पात्रका अनुरागी, परोपकारी, धर्मा चरण में राजधानीमे जाकर जिन भगवानके अभिषेक करनेका वर्णन
रत और संसारके समुद्रसे तारने वाला बताते हैं। किया है। क्योंकि भगवानकी दिव्य समीपता होने पर
शिष्य के लिए भी यह आवश्यक है कि वह गुरुभक्त, सिद्धिा बिना वाधाके हो जाती हैं
संमारसे विरक्क, नम्र, धामिक, शान्तहृदय, प्रमादहीन, शिष्ट "भगवद्दिव्यसानिध्य निप्प्रत्यूहा हि सिद्धयः"(१०-४६)
तथा बुद्धिमान हो।
[२-३०, ३१]
शिक्षा:स्वाधीनता
विद्याराधनके विषयमे श्राचार्य महाराज उरच स्वाधीनताके प्रति महाकविकी उक्किबहत महत्वास्पद है। शिक्षणका समर्थन करते हैं क्योकि "अपुरकलाहि वे स्वाधीनताको जिन्दगी और पारतंच्या मृत्यु बतात:- विद्या स्यात अवजैकफला क्वचित-"पूर्ण ज्ञानका एकमात्र जीविनात पराधीनात जीवानां मरणं वरम। फल तिरस्कार ही है।
[३-४४] मृगेन्द्रम्य मृगेन्द्रत्वं वितीर्ग केन कानने ॥१-४० ..
इसी कारण अंग्रेजीमे भी यह कहावत प्रचलित है.---
"A little knowledge is a dangerous इस प्रसंगमें महाकवि हरिचंद्रने लिखा है
thing". "लोके पगधीनं जीवितं परमोत्कृष्ट पदवीमवाप्त- निर्दोष विद्याका सर्वत्र प्रादर होता हैमपिसरममाचाफलनीचेतरमधुरक्षीगापचारपरिपालित "अनवद्या हि विद्या स्यात लोकद्वयप लावहा" पंजरवद्धशुकशावकजीवनमिव विनिन्दितम, निजवल- अर्थात्-निर्दोष ज्ञान इस लोक और परलोक्में विभवसमाजिनमृगेन्द्रपदमम्भावितस्य कुभीन्द्रकुम्भ फलदायी है। स्थलपाटनपटुतरवग्नरवरस्य मृगन्द्रम्यव स्वतत्रजावन यदि भेदविज्ञान न हुश्रा, तो शास्त्रके विषयमे किया मविनिन्दितभिनंदितमनवदामनिहदाम, इति ।" गया परिश्रम कार्यकारी है
(जीवंधरचम्पू पृष्ठ १५) 'हेयोपादेयविज्ञानं नो चेत् व्यर्थः श्रमःश्रुती' अर्थात्-परमोत्कृष्ट पदको प्राप्त भी पराधीन जीवन इस
[२-४४]