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चन्द सिरायको प्रतिवायसार टीका
किरण ६-७]
चामुण्डराय और उनके समकालीन आचार्य पं० जुगलकिशोरजी मुख्तारके अनुसार आराके जैन १०० अर्थान वि०म०१०३५ में समाप्त किया था। सिद्धान्त-भवनम कनकनन्दि आचार्यका रचा हुआ कनड़ी भाषाके सुप्रसिद्ध कविरन्नने अपना 'त्रिभंगी' नामका एक प्रन्थ है जो १४०० श्लोक प्रमाण 'पुराणतिलक' (अजितपुराण) नामकग्रन्थ श०सं०६१५ है और वे यही कनकनन्दि होगे।
अर्थात् वि०सं० १०५०म समाप्त किया था। उसनअपने त्रिलोकसारकी व्याख्याके कर्ता माधवचन्द्र ऊपर चामुण्डरायकी विशेषकृपा होनेकाउल्लेख किया है। विद्यदेव आचार्य नेमिचन्द्र के शिष्य मालूम होते इससे चामुण्डरायका समय विक्रमकी ग्यारहवी हैं । मूलगन्धमे भी इनकी कई गाथायें सम्मिलित हैं सदीका पूर्वार्ध निश्चित होता है। बार वे मूलमे शामिल की गई हैं। गोम्मटसारमें भी माधवचन्द्र विद्यदेवने तिलोयसार टीकामं इनकी कई गाथाये संग्रह की गई हैं जो संस्कृत टीका लिखा है कि चामुण्डरायको प्रतिबुद्ध करने के लिए की उत्थानिकासे मालूम होती हैं । मंस्कृत गद्यमय नेमिचन्द्र मि० च० ने इस ग्रन्थकी १९ रचना की क्षपणासार भी, जो कि लब्धिसारमें शामिल है, इन्ही और इसी तरह गोम्मटसारकी मन्दप्रबोधिका टीकाके माधवचन्द्रका है।
कर्ता अभयचन्द्र कहते हैं२० कि गंगनरेश राचमल्ल श्रीनेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीकी गोम्मटसार के महामात्य चामुण्डरायके प्रश्नके अनुरूप यह ग्रन्थ और त्रिलोकसार नामकी दो रचनायें प्रसिद्ध हैं और बनाया गया । इमसे उक्त दोनों ग्रन्थों के कर्ता ये दोनों ही संग्रह ग्रन्थ हैं। इन दोनोंकी ही अधिकांश नमिचन्द्रसि०६० और उनके सहयोगियों-चीग्नन्दि, गाथाय धवलसिद्धान्त और तिलोयपरणत्तिस मार इन्द्रनन्दि, कनकनन्दि, माधवचन्द्र-का समय भी रूपमें संग्रह की गई हैं। इनमें से गोम्मटसार तो विक्रमकी ग्यारहवीं सदीका पूर्वाध ठहरता है। चामुण्डरायकी ही प्रेरणासे उन्होंने बनाया है और श्रीवादिराजसूरिने अपना पार्श्वनाथचरित्र काव्य जैसा कि पहले कहा जा चुका है उन्हींके गोम्मटराय श०सं० १६४ (वि० सं०१०८२) में समाप्त किया नामपर इसका नामकरण किया गया है। गोम्मटसार है२१ और उन्होंने उसके प्रारम्भमें पूर्व कवियोकी का परिशिष्टपरू. लब्धिसार भी यतिवृषभके कषाय स्तुति करते हुए वीरनन्दिके चन्द्रप्रभ - काव्यका स्पष्ट प्राभृतपर से इन्हीने संग्रह किया है। आचार्य नेमिचन्द्र उल्लेख किया है २२ । अर्थात वि० सं० १०८२ तक की अन्य किसी रचनाका हमे पता नही है।
उक्त काव्यकी ख्याति हो चुकी थी और इससे भी जिस तरह चक्रवर्ती अपने शासन-चक्रस भारतवर्ष पूर्वोक्त समयकी पुष्टि होती है। के छह खण्डोको स धता है या अपने अधीन करता मैदानदेवश्चतरनयोगचतवदधिपारगश्चामण्डगया तिबाधनव्या है, उसी तरह आचार्य नेमिचन्द्रने अपने बुद्धिरूपमा
न्द्रन अपन बुद्धिरूप जेन अशेषविनय जनप्रतिबोधनार्थ त्रिलोकमारनामानंग्रन्थमारच यन चक्रस पद वंडागमको साधा। इसी लिए वे सिद्धान्त
। इसा लिए व सिद्धान्त- २०सिहनदिमुनीन्द्राभिन्दितगंगवंशललाम श्रीमद्राचमल्ल - २ क्रवर्ती कहलाये।
देवमहीवल्लभमहामात्यपद विराजमान रणरगमलनासहाय समय-विचार
पराक्रमगुगर भूपणसम्मात्यरत्ननिलयादिविविधिगुणग्रामप्रारम्भमे ही कहा जा चुका है कि चामुण्डराय
नामसमामादितकीर्ति श्रीचामुण्डरायभव्यपण्डरीक द्रव्यागंगनरेश राचमल्लके मन्त्री थे और उनका गज्यकाल नुयोगप्रश्नानुरूपम् " वि० सं० २०३१ से १०४१ तक है।
२१ शाकाब्दे नगवाधिग्न्त्रगणने संवत्सरे क्रोधने, __ चामुण्डरायने अपना चामुण्डरायपुराण श०सं० मामकातिंकनाम्नि बुधहिते शुढे तृतीयादिने । १७ नैनहितैषी भाग १४, अंक ६ पृ० १६५-६६
सिहे पाति जयादिके वसुमती जेंनी कथयं मया, १८ जह चक्कण य चक्की छक्वंड साहियं अविग्घेण निष्पत्तिगमिता सती भवतु वः कल्याण निष्यनये ।। पाच
तह मइचक्कण मया छबंड माइयं सम्मं । ३६७-क०का०२२ चन्द्रप्रभाभिसम्बद्धा रसपुष्टा मन:प्रिया । कुमतीव नो