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________________ ३७२ अनेकान्त [वर्ष ५ हाँ, विचार करते समय शास्त्रीजीने जो ढंग अख्तियार का व्याख्यान करते हैं। यह उनकी व्याख्यापद्धति है।" किया है उस परसे यह आशंका जरूर हो सकती है कि, "इसी तरह प्रकलंकदेव राज्यार्तिकमें तस्वार्थसूत्रके प्रत्येक हम अपने विचार-द्वारा शास्त्रीजीको सन्तुष्ट कर सकेंगे या अंशका या तो वार्तिक बनाकर या उन (उस ?) का सीधा कि नहीं? क्यों कि अभी शास्त्रीजी कई शताब्दी पूर्वके ही विशद व्याख्यान करते हैं।" इसके सिवाय, सर्वार्थसिद्धिबालचन्द्र योगीन्द्रदेव और श्रुतसागरादि टीकाकारोंके विषय की भूमिकामें तत्त्वार्थसूत्रकी उत्पत्ति एक भब्यके प्रश्न पर में कहते थे कि उन्होंने उक्त मंगलश्लोकको उमास्वामिकृत बतलाई है, “भूमिकाके अनुसार यदि तत्वार्थसूत्रकी भव्यके तत्त्वार्थसत्रका जो मंगलाचरण बतलाया है वह उनकी प्रश्नके अनुसार उत्पत्ति हुई है तो सूत्रकारको मंगलाचरण माधुनिक कल्पना है-उन्हें उसके लिये पूर्वपरम्परा प्राप्त करनेका कोई अवसर या प्रसंग नहीं था"। "मूल तत्वार्थसूत्र नहीं थी, जब उन्हें विद्वानोंके स्पष्टीकरण-द्वारा विद्यानन्द की कुछ प्रतियोमे यह श्लोक भी नहीं है।" अतः विद्यानन्द तककी पूर्वपरम्परा प्राप्त होगई तब विद्यानन्द-मान्यतादी को अपनी मान्यताके लिये पूर्वपरम्परा प्राप्त नहीं थी। पूर्वपरम्पराका प्रश्न सामने लाया गया है। यदि किमी इस युक्तिवादके पिछले दो अंश पूर्वपरम्पराके विचार विद्वानने विद्यानन्द-मान्यताकी पूर्व परम्परा भी बतलादी तो के साथ कोई ग्वास सम्बन्ध नहीं रखते । मूलतत्त्वार्थसूत्रकी फिर उन दूसरे उत्तरोत्तर प्राचार्योंकी मान्यताका प्रश्न कुछ प्रतियोंमें इस मंगलश्लोकका न पाया जाना प्रकृत विषय उठाया जायगा, और इस तरह जब तक उक्त मंगलश्लोक पर कोई असर नहीं डालता-खामकर ऐसी हालतमें जब को टीकासहित उस श्वे. भाष्य में नहीं दिखला दिया जायगा कि उनकी प्राचीनताका द्योतक समयका उल्लेख भी साथमे जिसे शास्त्रीजी "स्वयं सत्रकारका स्वोपज्ञ भाप्य" न हो और अधिकांश प्रतियों में यह मंगल श्लोक पाया जाता प्रसिद्ध बतलाते हैं तब तक शायद वे सन्तुष्ट नहीं हो सकेंगे। हो। रही भव्यके प्रश्न पर तत्वार्थसूत्रकी उत्पत्ति, इसके परन्तु ऐसी आशंका करके वर्तव्य-पालनमें शिथिल होना विषयमें प्रथम तो शास्त्रीजी खुद संदिग्ध हैं इसीसे 'यदि' व्यर्थ है--शास्त्रीजीका सन्तुष्ट होना न होना उनके प्राधीन शब्दका साथमें प्रयोगकर रहे हैं। दूसरे, तत्वार्थसूत्र प्रश्नोत्तर है, विद्वानोंको विचारक्षेत्रमें अपने कर्तव्यको ज़रूर पूग के रूपमे नहीं है--प्रश्नोत्तर रूपमे होनेपर उसमें उत्तरोंके करना चाहिये । यही सब सोच कर मैं शास्त्रीजीकी युक्तियों साथ प्रश्न भी रहने चाहिये थे, परन्तु प्रश्न तो दूर रहे, के निर्देशपूर्वक उन दोनों बातों पर अपना विचार प्रस्तुत प्रथम दो प्रश्नोंके उत्तर भी साथमे नहीं हैं। ग्रन्थकी सूत्रकरता हूं। प्रकृतिको देखते हुए, सर्वार्थ सिद्धिकी भूमिकामे ग्रन्थावतार (१) पूर्वपरम्परा-विचार-- का जो सम्बन्ध व्यक्त किया गया है उसका इतना ही पहली बात पूर्वपरम्पराके अभाव-सम्बन्धमें प्राशय जान पड़ता है कि किसी भव्यके प्रश्नको लेकर शास्त्रीजीने जो युक्तिवाद उपस्थित किया है उसका सार और सभी भव्य जीवोंको लक्ष्य करके प्राचार्य महोदयने इतना ही है कि विद्यानन्दको तत्वार्थसूत्र पर अपने स्वतंत्र रूपसे इस ग्रन्थरत्नको रचना की है-यह प्राशय पूर्ववर्ती प्राचार्यों के दो ही टीकाग्रन्थ उपलब्ध थे एक प्रा. कदापि नहीं लिया जा सकता कि उस भव्य तथा प्राचार्य पूज्यपादकी 'सर्वार्थसिद्धि' और दूसरा श्रीभकलंव देवका महोदयके मध्य में जो साक्षात् प्रश्नोत्तर हुआ था उसीके 'राजवार्तिक', इन दोनों टीकाग्रंथोंमे 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' उत्तर-भागको किसीने क्रमश: निबद्ध कर दिया है। तीसरे, इत्यादि मंगलश्लोककी कोई व्याख्या नहीं है, राजवार्तिको अवतार-कथा कुछ भिन्न प्रकारसे भी पाई जाती है। और इसका निर्देश तक भी नहीं है। यदि यह मंगलश्लोक चौथे, राजवार्तिकमें श्रीअकलंकदेव "अपरे पाराती याः"। तत्वार्थसूत्रका मंगलाचरण होता तो पूज्यपाद और अकलंक- नाऽत्र शिष्याचार्य सम्बन्धोविवक्षितः। किन्तु " इति निश्चित्त्य देव इसकी व्याख्या जरूर करते, क्योंकि "प्रा० पूज्यपाद मोक्षमार्ग व्याचिख्यासुरिदमाह।" इत्यादि इन प्रथम सूत्रके सर्वार्थ सिद्धि में तस्वार्थसूत्रके किसी भी अंशको बिना पीठिकावाक्योंद्वाराप्रश्नोत्तररूपसम्बन्धके प्रभावका भी सूचन याख्या और उत्थानके नहीं छोड़ते वे उसके एक एक शब्द करते हैं। अत: मंगलाचरणको अनवसरप्राप्त तथा अप्रा.
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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