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किरण १०-११]
तत्त्वार्थसूत्रका मंगलाचरण
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ताकी
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के अयोग्य बन जाती हैं-दूसरे विद्वानोंके लिये तब उनके विद्यमानंद-मा
धार विचार अथवा अनुपपत्तिपरिहारकी जरूरत ही नहीं रहती।
अब मैं श.स्सी के लेखकीयांशष्ट दो बातों को भी अन्यथा, यह नहीं हो सकता कि इधर तो शास्त्रीजी विद्या- लेता
। विद्याः लेता है जो उन्होंने नई उपस्थित की हैं और जिनमेंसे नन्दकी मान्यताको नि श्चतरूपमें स्वीकार करें और उधर
(१) एक है विद्यानन्द की मान्यतामें पूर्वपरम्परामा प्रभाव उप मान्यता अनुपपत्तियां उपस्थित करें। इस प्रकार की की प्रवृत्ति लेखमें कथनके पूर्वापर-विरोधको प्रदर्शित करती
इन दोनों बातों के द्वारा शास्त्रीजीने प्राचार्य विद्यानन्दकी है। इसीसे निश्चित मान्यताकी मौजूदगीमें शास्त्रीजीके
उक्त मंगल श्लोक-विषयक सिद्ध मान्यताके महत्वको कम "पर मेरी तो यह अनुपपत्ति थी जो अब भी कायम है"
करनेके लिये यह बतलानेकी चेष्टा की है कि विद्यानन्दको "तो भी अभी प्रश्न अवशिष्ट रह जाते हैं जो इम (विद्यानन्द
अपनी इस मान्यताके लिये पूर्वाचार्य-परम्पराका कोई की) मान्यतामे अनुपपत्ति उत्पन्न करते हैं" 'पर प्रश्न तो
समर्थन प्राम नही थ', वह उनकी निजी मान्यता एवं यह है कि ये (विद्यानन्द) उमे । मङ्गलश्लोकयो) स्पष्टतः
गलत धारणा है जो अकलंककी अष्टशतीके एक वाक्यके नन्वार्थ नृत्रका अंग भी मानते थे क्या ?" इस प्रकारके शब्द
आधार पर-उसका गलत अर्थ करके-बना ली गई है। बहुत ही खटकते हुए जान पडने हैं । अतः अनावश्यक
और इस लिये यह नहीं कहा जा सकता कि प्रा. विद्यासमझकर अनुपपत्तियों के विचारतो यहाँ छोड़ा जाता है।
नन्दने 'मोतमार्गस्य नेतारम्' इत्यादि मंगल श्लोकको जो वैसे भी उक्त अनुपपत्तियों विषयके पिष्टपंषणको ही लिये
उमास्वाति के तत्वार्थसूत्रका मंगलाचरण प्रतिपादन किया है हुए है--उनपे अधिकाश बात तो पूर्वविचारित ही हैं.
वह वास्तवम तन्वार्थसूत्रका मंगलाचरण है या कि नहीं। जिम्ह फिर दोहरा-दोरावर कुछ परिवर्तित रूपमें रख
इमपरमं अनेक प ठकोंको यह देखकर आश्चर्य होगा कि दिया गया है और कुछ विद्यानन्दकी व्याख्यापद्धति जैसी
| जिन विद्यानन्द स्वामीको सूक्ष्मप्रज्ञ' बतलाया जाता है, बात ऐसी भी हैं जिन्हें लेखमे बार बार दोहराया गया है
जिन्हें स्वय शास्त्रीजीने न्यायकुमुदचंद्र-द्वितीय भागकी और जिन पर इसमे पूर्व 'प्राक्षेप-परिहार-समीक्षा' शीर्षकके
प्रस्तावनाम 'अनुल तलस्पी पाण्डित्य और सर्वतीनीचे कितना ही विचार प्रस्तुत किया जा नुका है और
मुख अध्ययन के धनी तक प्रवट किया है और जिनके उसके द्वारा उन्हें भले प्रकार निःसार प्रमाणित भी किया वचनाको प्रमाण मानकर श स्त्रीजी ने उनके श्राधारपर कुछ ही जा चका है। सी स्थितिमें मेरे लिये उन अनुपत्तियो पर समय पूर्व यह सिद्ध करनेका प्रयत्न किया था कि विद्यानंद विचार करना और भी अनावश्यक होजाता है। मैं नहीं ने उक्त मंगलश्लोकको श्रा०पूज्यपादक द्वारा तस्वार्थशास्त्रकी चाहता कि व्यर्थके पिष्टपेषण-द्वारा अपना तथा पाठकोंका भमिका बाधने समय सर्वार्थसिद्धिक मंगल रूपमें रचा हुश्रा समय नष्ट करूं।
बतलाया है, उन्ही विद्यानन्द स्वामीको शास्त्रीजी श्राज, हां, यदि शान्त्रीजी अपनी स्वीकृत मान्यता
अपने उस प्रयन्नमे असफल होनेपर, संदेहकी दृष्टिस देखने को वापिस ले लेंगे और फिरये यह कहने लगंगे कि 'पा. लगे हैं, याचार्य विद्यानन्द उस वाक्यका सीधा-सरल
अर्थ न समझकर गलत अर्थ करनेमे प्रवृत्त हुए हैं ऐसा विद्यानन्द उक्त मंगलश्लोकको उमास्वामिकृत तत्वार्थमूत्रका
प्रतिपादन करने लगे हैं, और इस तरह उनकी मान्यताके मंगलाचरण नही मानते थे' तो मैं उक्त तीन अनुपपत्तियों
महत्वयो कम करनेकी चेष्टामे लगे हैं । परन्तु नहीं, इसमें पर ही नहीं किन्तु और भी जो अनुपपत्तियाँ वे उपस्थित
श्राश्चर्य करनेकी ऐसी कोई बात नहीं है,-विद्वानों को जब करेंगे उन सब पर व्यवस्थित रूपसे विचार करनेके लिये
कोई नई बात उपलब्ध होती है तभी वे उसे प्रकट करते हैं खुशीके साथ प्रस्तुत हो जाऊँगा । और तब उनकी विद्यानंद
तदनुम्मार शास्त्रीजीको हाल में जो नई बात उपलब्ध हुई है की मान्यताके आधार वाली नई खोजकी बात व्यर्थ पद
उसे उन्होंने विचारकोंके सामने रखा है। अब उसपर जायगी-उसे ये उपस्थित ही नही कर सकेंगे। अस्तु । विचार करना ही विद्वानोंका कर्तव्य है।