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जैन संस्कृतिका हृदय
(ले०-श्री पं० सुखलालजी संघवी)
संस्कृति एक ऐसे नदी के प्रवाह के समान है सुझे मुख्यतया जैन सस्कृतिके उस पान्तर रूपका या जो अपने प्रभवस्थानमे अन्त तकमें अनेक दूसरे हृदयका ही परिचय देना है, जो बहुधा अभ्यासजनित छोटे मोटे जल-स्रोतोसे मिश्रित; परिवधित और कल्पना तथा अनुमान पर ही निर्भर है। परिवर्तित होकर अनक दूसरे मिश्रणोसे भी युक्त जैन संस्कृति के बाहरी स्वरूप में अन्य सस्कृतिओं होता रहता है अंर उद्गमस्थान में पाये जाने वाले के बाहरी स्वरूपकी तरह अनेक वस्तुओंका समावेश रूप, स्पर्श, गन्ध तथा स्वाद आदिम कुछ न कुछ होता है। शास्त्र, उसकी भाषा, मन्दिर, उसका स्थापत्य; परिवर्तन भी प्राप्त करता रहता है । जैन कहलाने मृतिविधान, उपासनाके प्रकार, उसम काम आनेवाले वाली संस्कृति भी उस सस्कृति सामान्यक नियमका उपकरण तथा द्रव्य, समाज के खान पान के नियम, अपवाद नहीं है। जिस मस्कृतिको आज हम जैन उत्सव, त्यौहार आदि अनेक विषयोंका जैन समानके संस्कृतिके नाममे पहचानते है उसके मर्व प्रथम साथ एक निराला सम्बन्ध है और प्रत्येक विषय श्रा वर्भावक कोन थे और उनसे वह पहिले पहल अपना खास इतिहास भी रखता है। ये सभी बाते किस स्वरूपमें उद्गत हुई इसका पूरा पूरा सही बाह्म संस्कृतिकी अंग हैं। पर यह कोई नियम नहीं है वर्णन करना इतिहासकी सीमाके बाहर है । फिर कि जहा जहां और जब ये तथा ऐसे दूसरे अङ्ग भी उम पुरातन प्रवाहका जो और जैमा स्रोत हमारे मौजूद हों वहां और तब उसका हृदय भी अवश्य सामने है तथा वह जिन आधारोंके पट पर बहता होना ही चाहिये । बाह्य अगोंके होते हरा भी कभी हृदय चला आया है, उप सात तथा उन साधनोके ऊपर नहीं रहता और बाह्य अंगोके अभाव भा मंस्कृतिका विचार करते हुये हम जैन संस्कृतिका हृदय थोड़ा हृदय मभव है। इस दृष्टिको सामने रखकर विचार बहुत पहिचान पाते है।
करनेवाला कोई भी व्यक्ति भला भाति समझ सकेगा जैन संस्कृतिक भी, दुमरी संस्कृतियोंकी तरह, कि जैन संस्कृतिका हृदय, जिसका वर्णन मै यहां करने दो रूप हैं। एक बाह्य और दुसरा प्रान्तर । बाह्य जारहा है वह केवल जन समाजजात और जैन कहमप वह है जिसे उम संस्कृतिके अलावा दूसरे लाने वाले व्यक्तियों में ही संभव है ऐसी काई बात लोग भी आंख कान आदि बाह्य इन्द्रियांसे जान नहीं है। सामान्य लोग जिन्हें जन समझते है, या सकते है। पर मंस्कृतिका आन्तर स्वरूप ऐसा नहीं जो अनिको जन कहते हैं, उनमें अगर आन्तरिक होता। क्योकि किसी भी संस्कृतिक अान्तर स्वरूप योग्यता न हो तो वह हृदय संभव नही और जैन का साक्षान आकलन तो सिर्फ उसीको होता है जो नहीं कहलाने वाले व्यक्तियोमें भी अगर वास्तविक उसे अपने जीवनमं तन्मय करले । दूसरे ल.ग योग्यता हो तो वह हृदय संभव है । इम तरह जब उसे जानना चाहें तो साक्षात दर्शन कर नहीं सकते। सस्कृतिका बाहारूप समाज तक ही सीमित होनेक पर उस प्रान्तर मस्कृतिमय जीवन बितानेवाले पुरुष कारण अन्य समाजमे सुलभ नहीं होता तब सस्कृति या पुरुषों के जीवन व्यवहारोंसे तथा आस पासके क हृदय उस समाजके अनुयायियोका तरह इतर वातावरण पर पड़ने वाले उनके असरोंसे वे किसी समाजके अनुयायियोंमे भा-सभव होता है । सच भी प्रान्तर संस्कृतिका अन्दाजा लगा सकते हैं। यहां तो यह है कि संस्कृतिका हृदय या उसकी आत्मा