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किरण ८-६]
जन संस्कृतिका हृदय
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इतनी व्यापक और स्वतंत्र होती है कि उसे देश, काल को हमारे प्राचीनतम शास्त्रों में भी अनात्मवादी या जात-पात, भाषा और रीति-रस्म आदि न तो मीमित नास्तिक वहा गया है। यही वर्ग कभी आगे जाकर कर सकते हैं और न अपने साथ बाँध सकते है। चार्वाक कहलाने लगा । इस वर्गकी दृष्टिमें साध्य ___ अब प्रश्न यह है कि जैनसंस्कृति का हृदय क्या पुरुषार्थ एक काम अर्थात् सुख-भोग ही है। उसके चीज़ है ? इसकामक्षित जवाब तो यही है कि निव- साधनरूपसे वह वर्ग धर्मकी कल्पना नहीं करता या तेक धर्म जैन संस्कृतिकी आत्मा है। जो धर्म निवृत्ति धर्म नामसे नरह तरह के विधिविधानों पर विचार कगने वाला अर्थात पुनर्जन्मके चक्रका नाश कराने नहीं करता । अतएव इस वर्गको एकमात्र काम-पुरुवाला हो या उस निवृत्तिके माधनरूपसे जिस धर्म पार्थी या बहुत हुआ तो काम और अर्थ उभय का आविर्भाव, विकास और प्रचार हआ हो वह पुरुषाथी कह सकते हैं निवर्तक धर्म कहलाता है। इसका असली अर्थ दमरा विचार कवर्ग शारीरिक जीवनगत सुखको समझने के लिये हमें प्राचीन किन्तु समकालीन इतर साध्य तो मानता है पर वह मानता है कि जैसा धर्मम्वरूपोंके बारेमे थोड़ासा विचार करना होगा। मौजूदा जन्ममें सुख सम्भव है वैसे ही प्राणी मरकर ___ इस समय जितने भी धर्म दुनियामें जीवित हैं फिर पुनजन्म ग्रहण करना है और इस तरह जन्मया जिनका थोड़ा बहुत इतिहास मिलता है, उन सब जन्मान्तरमें शारीरिक मानसिक सुखों के प्रकप अपके आन्तरिक स्वरूपका अगर वर्गीकरण किया जाय कर्षकी शृङ्खला चालू रहती है। जैसे इस जन्म में वैसे नो वह मुख्यतया तीन भागों में विभाजित होता है। ही जन्मान्तरमें भी हमें सुखी होना हो, या अधिक पहला वह है, जो मौजूदा जन्मका ही विचार करता सुख पाना हो, तो इसके वास्ते हमें धर्मानुष्ठान भी है। दूसरा वह है जो मौजूदा जन्मके अलावा जन्मा- करना होगा। अपार्जन आदि माधन वर्तमान जन्म न्तरका भी विचार करता है। तीसरा वह है जो जन्म- में उपकारक भले ही हों पर जन्मान्तरके उच्च और जन्मान्तरके उपरान्त उसके नाशका या उच्छंदका उच्चतर सुखके लिये हमे धर्मानुष्ठान अवश्य करना भी विचार करता है।
होगा। ऐमा विचार-मरणी वाले लोग तरह तरह के ___ आजकी तरह बहुत पुराने समयमें भी ऐसे धर्मानुष्ठान करते थे और उसके द्वारा परलोक तथा विचारक लोग थे जो वर्तमान जीवन में प्राप्त होने लोकान्तरके उच्च सुख पानेकी श्रद्धा भी रखते थे । वाले सुखके उस पार किमी अन्य सुखकी कल्पनासे न यह वर्ग श्रात्मवादी और पुनर्जन्मवादी ता है ही पर नो प्रेरित होते थे और न उसके साधनोंकी खोजमें उसकी कल्पना जन्म-जन्मान्तरमें अधिकाधिक मुख समय बिताना टीक ममझते थे। उनका ध्येय वर्तमान पानेकी तथा प्राप्त मुम्बको अधिकम अधिक समय तक जावनका सुग्बभोग ही था । और वे इमी ध्येयकी स्थिर रखनेकी होनस उसके धर्मानुष्ठानोंको प्रवर्तक पूर्तिके लिये सब साधन जुटाते थे। वे समझते थे धर्म कहा गया है। प्रवर्तक धर्मका मंक्षेपमें सार यह कि हम जो कुछ हैं वह इसी जन्म तक हैं और मृत्यु है कि जो ओर जसी समाज व्यवस्था हो उसे इम के बाद हम फिर जन्म ले नही सकते । बहुत हुआ तो तरह नियम और कर्तव्यबद्ध बनाना कि जिमसे समाज हमारे पुनर्जन्मका अर्थ हमारी मन्ततिका चालू रहना का प्रत्येक सभ्य अपनी अपनी स्थिति और कक्षामे है । अतण्व हम जो अच्या बुरा करेगे उसका फल सुखलाभ करे और साथ ही ये जन्मान्तरकी तैयार। इम जन्मके बाद भोगने के वास्ते हमें उत्पन्न होना करे जिससे दूसरे जन्म में भी वह वर्तमान जन्मकी नही है । हमारे कियेका फल हमारी मन्तान या हमारा अपेक्षा अधिक और स्थायी मुच पा सके । प्रवर्तक समाज भोग सकता है। इसे पुनर्जन्म कहना हो तो धर्मका उद्देश्य समाज व्यवस्थाके साथ माथ जन्मान्तर हमें कोई आपत्ति नहीं । ऐसा विचार करने वाले वर्ग का सुधार करना है, न कि जन्मान्तरका छेद ।