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________________ किरण १०-११] नत्तार्थसूत्रका मंगलाचरण ३७३ संगिक नही कहा जा सकना और न ऐसा कहकर विद्यानन्द युनिमगत नहीं है। और इसीतरह मात्र इन दो टीकाग्रयों की मान्यता के लिये पूर्वपरम्पगका प्रभाव ही बतलाय, पम्मे विद्यानन्द मान्यताकी पूर्वपरंपराको ग्बोजना भी युकिजा सकता है। युन नही है। मान्यता पूर्वपरम्पराके लिये दूसरे टीकाअब रह जाना है युनिवाडया:थम प्रधान अंश, इस ग्रन्थ वाटीकामामे भिम दृग्र ग्रन्थ, जिनमें प्राप्तके सम्बन्ध मेग निवेदन इस प्रकार है परीक्षादिकी नाहतवार्थमूत्रके मगलाचरणका उल्लेग्ब हो, प्रथम तो कहना टीक नहीं कि पा० विद्यानन्दको और अपने मानानगुर, दादागुरु नथा समकालीन दगरे माधमिद्धि और गजवातिक ये ही टोकाग्रन्थ उपलब्ध वृद्ध प्राचार्गेमे प्राप्त हश्रा परिचय ये मय भी कारण हो धं क्योंकि मा कहना नभी बन सकता है जब पहले यह सका है। इनके सिवाय. अपने समयमे १००-७०० वर्ष सिद्ध कर दिया जाय कि विद्यानन्द पाल नवार्यमत्रपर परलं की लिम्बी हुई मृग्न वामृत्रकी मी प्रामाणिक इन दो टीकाग्रन्थोंके सिवाय और किसी भी दिगम्बर टीका प्रनियो भी उस मान्यनाम कारण हो सकती हैं जिनमें उक्त प्रथमीरनना नहीं हुई थी। पम्न यह सिद्ध नही क्यिा मंगलश्लोक मंगलाण पमे दिया हुश्रा हो । इतनी जा याना, क्योंकि अनेक शिलालम्बी श्रादि पम्प यह प्रकट पुगनी--श्रा. उमाम्बानिक समयनककी-नियोका मिलना है कि पूर्वमं दृमर भीटकानन्य रचे गये हैं, जिनममे एक उस समय कोई असभव नहीं था । अाज भी हमे अनेक तो यही हो सकता है जिपका राजवातिकम प्रथम सत्रके ग्रन्धाकी गयी प्रनियां मिल रही है जो अयमे ६००-७०० अनन्तर 'अपरे प्रागनीया इत्यादि वाक्यों द्वारा मृचन वर्ष पहलं की लिम्बी हुई है । पपीहालनम मात्र मार्थपाया जाना है, दमग स्वामी समन्तभद्र के शिष्य शिवोटि मिद्धि नथा गजवानिकको विद्यानन्द-मान्यतारी पूर्वपरंपरा पात्र या टीमग्रन्थ है. जिसका उल्लेख श्रवणबेलगोलके के निर्णयका प्राधार बनाना श्रापनिमे बाली नही है। शिलालम्ब नं. 1. निम्न वाम पाया जाता है और जिसमें प्रयुक्त हुअा 'पतन शब्द इस यातको प्रकट करना मरे, मामिति और राजयानिकर्म उक्तमगलहै कि यह श्लोक उमी टीकाप्रथका वास है और वहीं शोककी टीकाका न होना इसके लिये कोई बाधक नही है लिया गया है कि उक्त. मंगलशोक तपार्थमयका मगलाचरण है और न "नम्यंव शिश्शिवको टिमरिम्नपोलनालम्बनयमित इसके लिये कोई माधक ही है कि विद्यानन्दकी मान्यताको मंगाग्वागकरपातमनत्तन्वार्थमन्त्रं नातंचकार ॥" पूर्वपरमगका समर्थन प्राप्त नहीं था. क्योंकि टीकाकागके __यह भी नहीं कहा जा सकता कि उन दसर टाकाया लियं या लाजिमी नहीं है कि वे मगलश्लोकी भी व्या का विद्याननम्या उपलब्ध होना श्रम भव था क्योंकि उप ग्या को ग्वामकर मी हाजनमें उनके लिये व्याया लब्धिमे अभवताका कोई कारण प्रतीत नहीं होता। करना और भी अनावश्यक होजाता है जबकि उन्होंने मूल मभावना तो यहा तक भी होनी है कि गुरूमा जो ग्रन्थ के मगलाभणको पनाकर उसे अपनी का मंगला. उपलब्ध न हो वर गिग्यको उपलब्ध हो जाय कि चरण बना लिया हो। मामिद याही टीकाग्रंथ है त्रमागासंग्रहादि जो ग्रन्थ पं. गोपालदागनीको उपलब्ध जिम्मम मूलके मंगनाना को अपना लिया गया है और नही थे वे अाज नई ग्बोजके कारण उनके शियाँको उप राजवानिक मी ही मूत्रवानिक टीकाकृतिको निये लब्ध होरहे हैं। और इसलिये मभव तो यह भी है कि हुग है जो मगलाचरणको व्य ग्याको अनावश्यक कर देती जो टीकाप्रथ पूज्यपाद तथा अकलंकको प्राप्त न हो वह है। इस विषयका विशेष मईकरण एवं पुष्टीकरण मैने विद्यानन्द के सामने मौजूद हो। धन अपनेको उपलब्ध इन अपने प्रथमलग्यमे कर दिया है और रहा महा इस लेग्यम दो टीकाग्रन्या परमे यह कल्पना कर लेना कि विद्यानन्दको 'आतंप परिहार ममीना उपशीर्षक नचिकर दिया गया है भी यही दो टीकाप्रम उपलब्ध थं-इनमे पुराना अथवा प्रत यहो पर उमको फिर दोहगनकी जरूरत मानम इनके समकालीन दृमरा कोई टीकाग्रन्थ उपलब्ध नहीं था- नहीं होती।
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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