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अनेकान्त
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बाधाएँ ऊपर उपस्थित की गई है उनसे वह अबाधित नहीं की प्रतिपत्ति और अनिष्टकी निवृत्ति के लिये ही किया है। रहता, और जब अबाधित ही नहीं तब पूर्वपरम्पराके साय जैसा कि नीचे के कुछ उदाहरणोंसे प्रकट है:संगत भी कैसे हो सकता है? प्रा० विद्यानन्दका भर्थ -त. कृन्तन्तीति तीर्थकृतो मीमांसकाः" । तेषां सीधा-साधारण अर्थ न होकर विशेषार्थ है और वह पूर्व- समयास्तार्थकृत्सम्यास्तीर्थर छेदसम्पदाया कश्चिदेव सम्प्रपरम्पराके साथ संगत है, इसीसे उन्होंने उसे देते हुए दायो भवेद्गुरुः संवादका (१) नैव भवेदिति व्याख्यानान।" पहले ही यह सूचित कर दिया है कि मंगलपुस्सरस्तव ही
-श्रष्टस०, का०३ पृ. ५ शास्त्रावताररचितस्तुति कहा जाता है. जिसका कहा २ - "एकानेकप्रमाणवादिनास्वामान्यावृत्तरिति जाता है' (इत्युच्यते') यह पद स्वकपोलकरूपना अथवा स्व- (अष्टशती) - यथा च कापलादयोऽनेक.प्रमाण वादनरुचि-विरचितस्वकी भावनाको हटाकर क्थनकी ख्याति और तीर्थच्छेदसम्प्रदायास्तथा तचोपववादिनोऽपि (अनेकपूर्वपरम्पराके साथ उसकी संगतिका द्योतक है। साथ ही उस प्रमाणवादिनः), तैरेक्स्यापि प्रमाणस्यानामधानात् । नैवअर्थ अनन्तर 'इति व्याख्यानात' पद देकर तो उन्होंने उसकी प्रमाणवादनोऽनेवमाणवादिन इति व्याख्यानात् ।' स्थितिको और अधिक भी स्पष्ट कर दिया है। अर्थात् यह
-अष्टम०, का० ३ पृ. ४२ बतला दिया है कि मंगल पुरस्सरस्तव' पदका 'शामावतार
३--'श्राभलापतवंशानामामकापावेत. .. .' इति रचितस्तुति' सीधा अर्थ या अनुवाद नहीं है, किन्तु वह उस (न्य यविनिश्चय ) अभिजापविवेकत: अभिलापरहितत्वात का व्याख्यान है-पूर्वचार्यपरम्परासं प्राप्त विशिष्ट क्थन है। इात व्यास्यानात। -१एस०, का० १३ पृ० १२१ यहाँ व्याख्यानात्' शब्द खासतौरसे ध्यान देने योग्य है।
४-'अपीर मेव कारिका (मिलापतवंश नामऔर वह प्रामाणिकताको दृष्टिसे विद्यानन्द के उस की त्यादि) योज्या, श्रमिलापा६६२ इयां ल.परित जान है। मालूम होता है शास्त्रीजीने उस पर कुछ ध्यान
इति व्याख्यानात ।" - स०, का० १३ पृ० १२१ नहीं दिया, और शायद इसीसे उन्होंने विद्यानन्द के अर्थक
५-"प्रश्नवशादेव वस्तुन्यविरोधन विधिप्रतिषेध. साथ उसे उस भी नहीं किया। परन्तु कुछ भी हो
कल्पना सप्तभंगी हात(राजवातिक)वचनात · । विधिकलना. यथास्थान प्रयुक्त हुआ यह शब्द अपना खास महत्व खता
२ प्रतिषेध कल्पना, ३ क्रमतोविधि-प्रतिषेध रूपना, ४.", है और किसी तरह भी उपेक्षणीय नहीं कहा जा सकता।
७ माऽक्र.माझ्या विधिप्रतिषेधकल्पना च सप्तभंगीति न्यायकी परिभाष में 'ध्यारयान' संगत विशिष्ट वयनको
व्याख्यानान।" - स०, का. १५ पृ. १२५ अथवा प्रसिद्ध-अर्थसे भिन्न कथनको कहते हैं. जि.सकी पुष्टि
इन उदाहरणोरसे, जिनमेसे पहला समद्रिक "व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिनहि संदेहादल६एम
और शेष सब कलंकके पदोंके गृढ.र्य को व्यक्त करने इस सुप्रसिद्ध एवं प्राचार्य पूज्यपाद,' अकलंकदेवर और
वाले हैं, विज्ञ पाठक विद्यानन्दके हार्दयो भने प्रकार समझ विद्यानन्द के द्वारा अनुमोदित न्याय-वाक्यसे भी हो जाती
सकते हैं, उनके 'इति व्याख्यानात' पदके प्रयोगका रहस्य हैं, जिसे देकर अकलंकदेवने तो "इत्यनिष्ठस्य निवृतिभवति"
जान सकते हैं और साथ ही यह भी अनुभव कर सकते हैं शब्दों द्वारा यह भी प्रकट किया है कि इससे अनिष्टकी .
कि उन्होने अकलंक देवके मंगल पुरस्सरस्तव' इस गृढ पदका निवृति होती है।' चुनाँचे प्रा. विद्यानन्दने जहाँ स्वामी * श्रीअकलक देवकं वचन का ने गूढ तथा गम्भीराथंक होते समन्तभद्रकी कारिकाओं और अकलंकदेवकी प्रशतीके हैं यह बात नीचेक दो श्राचार्य-वाक्यांसे पाठक भले वाक्योंका सीधा-सरस अर्थ या अनुवाद किया है वहीं प्रकार अवगत कर सकते है-- उन्होंने 'व्याख्यानात' जैसे पदका प्रयोग भी नहीं किया- "गूढमर्थमकलङ्कवाङ्मयागाधमिनिहितं तदायनाम । अपनी भोरसे उन्होंने इस पदका प्रयोग संगत विशेषार्थ व्यञ्जयत्यमलमनन्तवार्यवाक् दीपवनिर्गनशंपदे पदे ॥"
वादिगजसरि १ सर्वार्थ सिद्धि पृ. ३०६ (शोलापुर संस्करण)।
"देवस्यानन्तबीयोऽपि पदं व्यक्त तु सर्वतः।। २ राजवातिक पृ०१३१,३५५ । ३ श्लोकवातिक पृ०५०४। न जानातऽकलङ्कस्य चित्रभेनर मुनि॥"-अनन्तवीर्याचार्य