SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 14
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ किरण १-२] जैनकला और उसका महत्व १४ अनन्त, १५ धर्म, १६ शान्ति, १७ कुन्थ (क्कुस्थ) वृषभसे, पद्मका पामे, चन्द्रप्रभका चन्द्रमासे, शीतलका १८ अर १६ मल्लि, २० मुनिसुव्रत, २१ नमि २२ नेमि वृक्षछायामे, उग्र वा उरगवंशी पार्श्वका सर्पमे संकेत होना २३ पार्थ, २४ महावीर तीर्थंकरोंको पृथक पृथक संकेत स्वाभाविक ही है। इसी तरह कच्छप-नामधारी पुरुषको करने के लिये प्रयुक्त हुए हैं। ये चित्र बहुधा महन्त- मन्तान होने के कारण इनका कहपगोत्री कहलाना भी मूर्तियोके धामनोंपर खुदे हुए मिलते हैं। परन्तु इतना ही स्वाभाविक ही है। नही, ये सजावटी चित्रकारीके लिये स्तूपोंकी बाढीपर, लम्बे-लम्बे युगोकी विभिन्न भाषाओमेमे गुजरकर हम मन्दिरोंकी दीवारों पर, तोरण और शिलापटीपर, शिला तक पहुचते हुए इन महापुरुषों के नामांकी इनमी काया लेखों और ताम्रपत्रीपर, झण्डा और सिक्कोंपर भी जगह पलट हुई है कि प्राज इनका और इनके उपर्युक प्रतीकोंका जगह अङ्कित हुए मिलते हैं। सम्बन्ध बिठाना कुछ प्रामान काम नहीं है। परन्तु इस ये चिह्न जैनियोम पदचिह अथवा शारीरिकचिह मामले में यह बात याद रखने योग्य है कि यपि काल शरीरके सानुद्रिक चिह्न-के नाममे प्रसिद्ध है, परन्तु इनका इन महापुरुषोके उच्चाग्नि नामोको काफी बदल चुका है, रहस्य इन दोनों बातोप परे है। ये न तो अहंन्तीके पद परन्तु वह इनके लिये प्रयुक्त होने वाले चित्रलिपिके प्रतीकों चिह्न हैं. न शारीरिकचिव हैं, ये वास्तवमै अर्हन्तोंके नाम, वंश, गोत्र और जातिसूचक शब्दोंके चित्र है-उन शब्दोंके को कुछ भी न कह सका है। वे प्रतीक पूर्वकी तरह प्राज भी उसी तरह प्रयोगमे भारहे हैं। इसलिये यदि इन महाजिनके द्वारा यह अपने जीवनकालम पुकारे और माने जाने पुरुषों के वास्तविक नाम गोत्र व वंशोका पत्ता लगाना हो थे । चित्रलिपिके नियम अनुसार वृषभ नामधारि पुरुषका नो वह इन प्रतीकोंके पर्यायवाची शब्दोंके आधारपर ही १ (अ) गावारणाश्वा: कारकाकपद्माः लगाया जा सक्ता है। और मत्स्य कन्छप बगह. आदि म्वन्यापधीशो मकरद्र माको ।। प्रतीक नामधारी अवनागेंके अनेक प्राण्यानोपरमे जो भारत गहौलु गाय: किटि मधिक च के पौगणिक साहित्यमे भरे पडे हैं. इन महापुरुषोंकी वज्र मृगानः कुसुमं घटश्च: ।। ३४६ जीवन-कथाका संकलन भी किया जा सकता है। इसतरह कुमतिल शग्वजगमिदः ये प्रतीक भारतका पुराना इतिहास जाननेके लिये बहुतही क्रमण विबऽकांवर लानाान ॥ ३४७ सहायक हैं। -- श्री स्यमनकृत प्र गट इसी प्रकार स्वास्नक, चक्र और त्रिशूल आदि चिह्न (या) पं० श्राशाकृन प्रानामागद्धार १, ७८, ७६ जो सदा भारतमे मंगलकारी चिह्न माने जाते रहे हैं, जो (है। गोनमचारत्र-५, १३०, १३१ सदा भारतकी शुभकामनाओंके माथ बंध रहे हैं, जो सदा (ई) प्राकृत निर्वाणर्भात । भारतीय संस्कृतिके माथ साथ विदेशोंमें भी अपनाए गये हैं, २ (अ) Archeological Survey of India- वास्तवमै भारतीय श्रमणलोगोकी मान्यताश्रीके प्रतीक हैं। VolxX Mathura Antiquities,(90) इनकी रचना मी भारतकी पगनी चित्रलिपिके नियमानुसार फलका-६५ मे ७५ नक श्रोर ७८ म ८१ तक पर ही हुई है। इनमें स्वम्निक, पुरुष-प्रकृति रूप दो तत्त्वांमे मयुगके जं. स्तूपाकी बाइपर यह चिह्न अङ्किन हुए बने और चतुर्गतिरूप मंसारमें भ्रमनेवाले जीवन-संबंधी दिग्बनाये गये है। महामन्यका प्रतीक है। इस स्वस्तिककी बीच वाली खड़ी (श्रा) निलायाणगान ४.८१६. पृष्ठ २०, यागग प्रति और पडी दो लकीर पुरुष और प्रकृति, जीव और पुदगल त्रिलाकमारं ॥१०१०॥ श्रादिपुगण २२ २६ चैतन्य और जद, ग्रह्म और माया, अमृत और मन्यं, सन्य हरिवंशपुर ग २,७३ म उपराक्न प्रकार के चिह्नामे और असाय, अमूर्त और मृरूप विश्वके दो सनातन संयुक्न ध्वनाांका वर्णन किया गया है। तत्वोंका निर्देश करती हैं और सिरोपरकी चार लकीरें चार
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy