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अनेकान्त
[वर्ष ५
गतियोका निर्देश करती हैं। इस तरह यह प्रतीक घोषणा सूचक पशु-पक्षियोंके चित्र आदर और पूजाकी वस्तु बने, करता है कि यह समस्त विभिन्न नाम, रूप, धर्मवाला इन चित्रोंका इतना दौर-दौरा बढ़ा कि आखिर कालकी संसार मायासे बंधे हुए ब्रह्म अथवा प्रकृतिये जकड़े हुए भूलभुलय्यामे पढ़कर मनुष्य अपने असली वीरोंको भुला पुरुषका-जड़-चैतन्यका ही पसारा है।
बैठे वे उनके नामोंके प्रतीकरूप प्रयुक्त होने वाले पशु___इनमे नाभि, नेमि और पारों से बना हुआ चक्र, ऋत अथवा पक्षियोंको ही अपने कुल और गोत्रका, अपने संघ और धर्मचक्रका प्रतीक हैं, जोरात और दिन, शुक्लपक्ष और कृष्ण- समाजका अपने धर्म और कर्मका सृष्टा मानने लगे, वे पक्ष, उत्तरायण और दक्षिणायण, उत्सपिणी और अव- मस्य, कन्छप वराह श्रादि जन्तुओंको ही अवतार समझने सर्पिणीममे होता हुश्रा सदा ही घूमना रहता है, जो लगे। वे पुराणकथित नाग और सुपर्ण, वानर और रीछ द्वादश मास और षट ऋतुचक्रमें नाचता हुआ संसारमें उत्पत्ति, अादि मानव जातियोंको तत्ततशल-सूचक पशुपक्षियोंकी स्थिति और प्रलय करनेवाले कालचक्र के साथ साथ बिना ही जातियां जानने लगे। रोक-टोक सदा मागे ही चलता रहता है, जो यादि और अन्त अपनी पुरानी मान्यताओं और प्रथाओंके साथ मोह रहितमंसारमे सदाक्रमनियम और व्यवस्थाको कायम रखता है। लोना मनलिये बदती शिकल । इसीलिये
त्रिशुल मोक्षमार्गका त्रिदण्डाकार प्रतीक है । यह बत- भारतमे ब्राह्मी श्रादि लिपिका आविष्कार होजानेपर भी लाता है कि जो जीव अपने मन, वचन और कायके तीनो भारतीय लोगोने अपनी पुरानी चित्रलिपिका साथ न छोडा, योगोंको भली भांति दण्डित वा वश कर लेता है, वह
वे अपने महापुरुषों और उनकी मान्यताका सदा चित्रसंसारके भ्रमणमे छूट जाता है और कालकी मारमे बच ।
लिपिसे ही संकेत करते रहे, उनके नामसूचक जन्तुओंकी जाता है।
श्राकृतियांको ही अपने मुक्ट, मण्डी और सिक्कोपर महापुरुषोंके उपर्युक नाम अाजकलके ढंगमे रक्वे दर्शाते रहे और अाज तक उन्ही प्रतीको बरतर काम ले हुए नाम नहीं हैं और न उनके उपर्युक्त प्रतीक अाजकल रहे हैं। की लिपि में लिखे हुए शब्द हैं। ये बहुत पुराने ढंगके हैं। इस तरह इन चिह्नोंका अध्ययन जहाँ भारतकी प्राचीनइनका सम्बन्ध भारतकी उस प्रारम्भिक सभ्यता है जब तम सभ्यता, उसकी चित्रलिपि, उसका व्याकरण जाननेके मनुष्योका शब्दकोष बहुत ही परिमित था, जब वे अाजकल लिए जरूरी है, वहा ये तीर्थकरके वास्तविक नाम, वंश, के अशिक्षित, देहाती लोगों के समान पशुपक्षियों, फल- जीवन और विचार जाननेके लिये भी जरूरी हैं। फलों, चांद-सूरज, जैसे प्रत्यक्ष दीखने और व्यवहारमे जैन कलाके वृक्ष.श्राने वाले पदार्थों के नामपर ही अपने बच्चोंके नाम इन चिह्नोंके अतिरिक्त जैनकलाके वह प्राचीन वृक्ष सुपर्ण, गरुड़, नाग, जटायु, हाथी, सिंह, ऋषभ, मृग, भी कुछ कम महत्त्वकी चीज़ नही हैं, जो जैनसाहित्यमे मीन, कच्छप, बानर, रीछ आदि रक्ग्वा करते थे, जब इन चन्यवृक्ष अथवा दीक्षावृक्षके नामग्ये प्रसिद्ध हैं। ये वृक्ष नामधारी विशेष पराक्रमी वीरोंके नामपर ही मनुष्योंमे उपयुक्त तीर्थकरके क्रमसे निम्न प्रकार हैं।' विविध वंश, गोत्र और जातियोंकी स्थापना होती थी। १. न्यग्रोध (बड) २. सप्तपणं (देवदास) ३. साल जब श्राधुनिक ढंगकी परिमार्जित लिपियोका आविष्कार न ४ प्रियालु (खिरनीका वृत्त) ५ प्रियंगृ, (एकलता)६ छत्रहुआ था और मनुष्य अपने वीरोंके प्रति श्रद्धा जाहिर करने वृक्ष ७. सिम्म ८ नाग ६. मालवी १० पिलखन
और उनके जीवनकी गौरव गाथा नोंको ज़िन्दा रखने के लिये १: टिंबरू १२ पाटल १३. जम्बू (जामन) १४. पीपल प्रस्तरशिलानों, धातुपत्रों, मिट्टीकी बनी 'टो और झंडापर १(अममवायोगसूत्र-उत्तम परुष अधिकार १७-१-३, पृ०३१३: चित्रलिपिके नियमानुसार उनके नामों के चित्र बनाते थे।
(अमोलक ऋषिकृत हिन्दीअनुवाद) ज्यों ज्यों समय बीता, ये वीरपुरुष मनु कुलकर (श्रा) श्री जयमेन-प्रतिष्ठापाठ ८३५ प्रजापति आदि उपाधियोंसे विख्यात हुए। इनके नाम (इ) हेम नन्द--अभिधान चिन्तामगि, ६२